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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

वही नज़र, वही अंदाज़े-गुफ्तगू .......

वही नज़र, वही अंदाज़े-गुफ्तगू लाओ.
हमारे सामने तुम खुद को हू-ब-हू लाओ.


शज़र-शज़र से जो बेरब्तगी समेत सके
उसी ख़ुलूस के मौसम को चार-सू लाओ.


हरेक हर्फ़ पे रौशन हो ताजगी की रमक
कलम की नोक पे जज़्बात का लहू लाओ.


बहुत दिनों की उदासी का जायका बदले
अब अपने घर में मसर्रत के रंगों-बू लाओ.


किसी लिबास में बेपर्दगी नहीं छुपती
हमारे जिस्म पे मलबूसे-आबरू लाओ.


हरेक वक़्त रफीकों की बात क्या मानी
कभी तो लब पे तुम अफसान-ए-अदू लाओ.


बिखर चुका है बहुत शोरो-गुल फजाओं में
इसे समेट के अब इन्तशारे-हू लाओ.


हमारे सर पे अंधेरों का बोझ है गौतम
कभी हमें भी उजालों के रू-ब-रू लाओ.


----देवेन्द्र गौतम

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनों की उदासी का ज़ायक़ा बदले
    अब अपने घर में मसर्रत के रंगों-बू लाओ.

    मुसबत सोच से तआरुफ़ करवाता हुआ
    ये बा-कमाल शेर .... वाह !!
    ग़ज़ल में
    गौतम के फ़न का कमाल ज़ाहिर हो रहा है

    ज़बान-ओ-लफ्ज़ भी उम्दा, बयान भी बेहतर
    इसी तरह के सुख़न को ही चार-सू लाओ

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  2. दानिश भाई! हौसला-अफजाई के लिए शुक्रिया

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  3. शजर-शजर से जो बेरब्तगी समेट सके
    उसी ख़ुलूस के मौसम को चार-सू लाओ.
    वाक़ई ज़रूरत है एक पुरख़ुलूस मुआशरे की

    हरेक हर्फ़ पे रौशन हो ताजगी की रमक
    कलम की नोक पे जज़्बात का लहू लाओ.
    वही शेर कामयाब भी होते हैं जिन में जज़्बात पैवस्त हों

    बहुत दिनों की उदासी का जायका बदले
    अब अपने घर में मसर्रत के रंगों-बू लाओ.
    ज़िंदगी शायद इसी का नाम है

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  4. बहुत सुन्दर शेर , बड़े नाजुक से मसलों पर लिखे गए ..देवेन्द्र जी , जानदार अभिव्यक्ति के लिए बधाई ..समेत को समेट लिख लें ..शायद यही आप लिखना चाहते हैं ...

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  5. हौसला-अफजाई और गल्ती पर ध्यान दिलाने के लिए शुक्रिया! उम्मीद है आगे भी स्नेह बना रहेगा

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  6. हरेक हर्फ़ पे रौशन हो ताजगी की रमक
    कलम की नोक पे जज़्बात का लहू लाओ.
    बहुत दिनों की उदासी का जायका बदले
    अब अपने घर में मसर्रत के रंगों-बू लाओ.

    वाह..क्या खूब लिखा है आपने...लाजवाब...
    मेरे ब्लॉग पर भी आने के लिए हार्दिक धन्यवाद।

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  7. भावों का ठोसपन और विचारों की तरलता जिस तरह आपके अशआर में हैं वो गजल की ताकत और तेवर की एक मिसाल है। ‘हर बरस गुज़रा है हमपे एक आफत की तरह, ऐ खुदा! हमपे तुम्हारी मेहरबानी कब तलक.’ या फिर ‘ अब यहाँ कोई करिश्मा या कोई जादू न हो, आदमी बस आदमी बनकर रहे साधू न हो. ’.। क्षोभ और असंतोष आता है तो तोड़फोड़ करने के लिए नहीं, गहरे में ले जाने के लिए। एक ऐसी करुणा जो निस्पंद नहीं करती, हां सवालों के बीच लाकर परेशान जरूर करती है। गजलगंगा ब्लाग पर आनेवालों के लिए एक पहेली - सोचिए मीरा और महादेवी गजल में आतीं तो क्या होता ?
    उमा
    www.aatmahanta.blogspot.com

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  8. बहुत ही उम्दा ग़ज़ल.किस शेर की तारीफ़ करू किसे छोडूं.
    आपकी कलम को सलाम.

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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