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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

तमन्नाओं की नगरी को कहीं फिर से बसा लूंगा

तमन्नाओं की नगरी को कहीं फिर से बसा लूंगा.
यही दस्तूरे-दुनिया है तो खुद को बेच डालूंगा.

तुझे खंदक में जाने से मैं रोकूंगा नहीं लेकिन
जहां तक तू संभल पाए वहां तक तो संभालूंगा.


उसे मैं ढूंढ़ लाऊंगा जहां भी छुप के बैठा हो
मैं हर सहरा को छानूंगा, समंदर को खंगालूंगा

 दिखाऊंगा कि कैसे आस्मां  में छेद होता है
मैं एक पत्थर तबीयत से हवाओं में उछालूंगा .

मिलेगी कामयाबी हर कदम पर देखना गौतम
खुदा का  खौफ मैं जिस रोज भी दिल से निकालूंगा.

----देवेंद्र गौतम



10 टिप्‍पणियां:

  1. तुझे खंदक में जाने से मैं रोकूंगा नहीं लेकिन
    जहां तक तू संभल पाए वहां तक तो संभालूंगा.

    बहुत सुन्दर ग़ज़ल !!!

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  2. मैंने आपकी ग़ज़ल पढ़ी..बहुत अच्छी लगी.
    सोचता हूँ ,आप कैसे इतना कुछ लिख लेते हैं

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  3. मैंने आपकी ग़ज़ल पढ़ी..बहुत अच्छी लगी..
    सोचता हूँ,आप कैसे इतना कुछ लिख लेते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  4. जहां तक तू संभल पाए वहां तक तो संभालूंगा.
    वाह! वाह! बहुत उम्दा

    जवाब देंहटाएं
  5. दिखाऊंगा कि कैसे आसमाँ में छेद होता है
    मैं इक पत्थर तबियत से हवाओं में उछालूँगा

    हर अच्छी खूबी और अच्छा ख़याल ,
    अपने आस-पास से ही लिया जाता है
    और उस खूबी को अलफ़ाज़ में ढाल पाना ही
    फन की ख़ूबसूरती बन जाता है
    एक खूबसूरत ग़ज़ल पर बधाई...!

    जवाब देंहटाएं
  6. सुन्दर प्रस्तुति.
    सदा जी की हलचल से आपकी इस पोस्ट पर
    आकर बहुत अच्छा लगा.

    आभार.

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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