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मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

ज़मीं की तह में अभी तक हैं जलजले रौशन

जो अपना नाम किसी फन में कर गए रौशन.
उन्हीं के नक्शे-कदम पर हैं काफिले रौशन.

ये कैसे दौर से यारब, गुजर रहे हैं हम
न आज चेहरों पे रौनक न आइने रौशन.

किसी वरक़ पे हमें कुछ नजऱ न आएगा
किताबे-वक्त में जब होंगे हाशिये रौशन

हवेलियों पे तो सबकी निगाह रहती है
किसी गरीब की कुटिया कोई करे रौशन.

हरेक सम्त अंधेरों की सल्तनत है मगर
दिलों में फिर भी उमीदों के हैं दिये रौशन.

हमारे पांव तो कबके उखड़ चुके हैं मगर
ज़मीं की तह में अभी तक हैं जलजले रौशन

सवाल सबके भरोसे का है मेरे भाई
कलम संभाल अंधेरे को जो लिखे रौशन.
--देवेंद्र गौतम


शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए

सबकी नज़रों से जुदा हो जाए.
उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए.

चीख उसके निजाम तक पहुंचे
वर्ना गूंगे की सदा हो जाए.

अपनी पहचान साथ रहती है
वक़्त कितना भी बुरा हो जाए.

थक चुके हैं तमाम चारागर
दर्द से कह दो दवा हो जाए.

उसके साए से दूर रहता हूं
क्या पता मुझसे खता हो जाए.

कुछ भला भी जरूर निकलेगा
जितना होना है बुरा हो जाए.

होश उसको कभी नहीं आता
जिसको दौलत का नशा हो जाए.

घर में बच्चा ही कहा जाएगा
चाहे जितना भी बड़ा हो जाए.

-देवेंद्र गौतम


शुक्रवार, 16 मई 2014

धरती को अपनी धूरी पर रहने दो

कु़दरत की मस्ती को कायम रहने दो.
मत बांधो, सारी नदियों को बहने दो.

आसमान को चाहो तो छू सकते हो
धरती को अपनी धूरी पर रहने दो.

बंगला-गाड़ी की उसको दरकार नहीं
रौशनदान में गोरैया को रहने दो.

बुरे-भले का फर्क जमाना कर लेगा
हम जो कहना चाह रहे हैं, कहने दो.

हम तो उनकी ईंट से ईंट बजा देंगे
जुल्मो-सितम जिनको सहना है सहने दो

लॉकर में रखना है तो क्या फर्क उन्हें
सोने, चांदी या पीतल के गहने दो.

वीरानी में डूबे घर का क्या करना
दरक-दरक कर दीवारों को ढहने दो.

--देवेंद्र गौतम



शनिवार, 29 मार्च 2014

हमको किसी डगर पे भटकने का डर न था

अंधी सी इक डगर थी, कोई राहबर न था
हम उसको ढूंढते थे उघर, वो जिधर न था
इतना कड़ा सफ़र था कि रूदाद क्या कहें
हर सम्त सिर्फ़ धूप थी, कोई शज़र न था
अहबाब की कमी न थी राहे-हयात में
लेकिन तुम्हारे बाद कोई मोतबर न था
सुनने को सारे शहर की सुनते थे हम मगर
हम पर किसी की बात का कोई असर न था
रखते थे अपने दिल में बिठाकर उसी को हम
आखों के सामने जो कभी जल्वागर न था
दरिया में डूबने का सबब कोई तो बताय
कश्ती के आसपास तो कोई भंवर न था
हम जानते थे मौत ही मंज़िल है आख़िरी
हमको किसी डगर पे भटकने का डर न था
यूं तो वहां ख़ुलूस की कोई कमी न थी
उसकी गली में फिर भी हमारा गुज़र न था।
--देवेंद्र गौतम 08860843164

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

तुम्हारे शह्र का दस्तूर ही निराला है

तमाम उम्र अंधेरों ने जिसको पाला है.
उसी के नाम पे कायम अभी उजाला है.

छुपा के रखता है खुद को सफेद कपड़ों में
हमें पता है, वो अंदर से बहुत काला है.

हम अपने आप ही गिरते हैं और संभलते हैं
यहां किसी को किसी ने कहां संभाला है.

सब अपने-अपने हिसारों में कैद रहते हैं
तुम्हारे शह्र का दस्तूर ही निराला है.

कभी भी खुलके मगर बात क्यों नहीं होती
तेरी ज़बां पे, न मेरी ज़बां पे ताला है.

किसी को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता
अंधेरा है कि तिरे शह्र में उजाला है.

-देवेंद्र गौतम

सोमवार, 13 जनवरी 2014

सूचना

मित्रो,
मेरी ग़ज़लों का पहला संकलन आख़री मुकाम धुआं ज्योति पर्व प्रकाशन, गाजियावाद से प्रकाशित हो रहा है। फरवरी 2014 में विश्व पुस्तक मेला में इसका लोकार्पण होगा। इसका कवर आप इस लिंक पर देख सकते हैं।
-देवेंद्र गौतम

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