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रविवार, 28 मार्च 2010

हवा के दोश पे लहराते....

हवा के दोश पे लहराते पर भी आयेंगे.
लहूलुहान परिंदे इधर भी आयेंगे.

सजा के रख दो कोई आईना हरेक जानिब
इधर भी आयेंगे चेहरे, उधर भी आयेंगे.

वो जिनकी छांव मयस्सर न हो सकेगी कभी
सफ़र में बारहा ऐसे शज़र भी आयेंगे.

भटकने वालों को कुछ और भटक लेने दो
जरा थकेंगे तो फिर अपने घर भी आयेंगे.

सुलूक उनसे भी तुम करना आदमी की तरह
हमारे साथ कई जानवर भी आयेंगे.


---देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

हरेक बाब में....

हरेक बाब में सूरज ही लामकां निकला.
किताबे-सुब्ह का हर लफ्ज़ रायगां निकला.


ये खामुशी भी तो खुद इक जुबान होती है
मेरे सुकूत के अन्दर मेरा बयां निकला.


किसी का क़त्ल हुआ और मैं लरज़ उट्ठा
कहां पे आग लगी और कहां धुआं निकला.


मेरा रफीक था, दुश्मन समझ रहा था जिसे
मैं अपने आप में किस दर्ज़ा बदगुमां निकला.


मैं अबके नींद के आगोश में नहीं फिर भी
मेरी तलाश में ख्वाबों का कारवां निकला.


अजीब बोझ था मुझपर मेरे ख्यालों का
जमीं लरजती रही मैं जहाँ-जहाँ निकला.


खुदा का शुक्र है कोई कमी नहीं गौतम
बस इक खुलूस से खाली मेरा मकां निकला.


----देवेंद्र गौतम

शनिवार, 20 मार्च 2010

नवाहे-दिल में है.....

नवाहे-दिल में है आंखों के रू-ब-रू न सही.
तेरा ही अक्स है, इस आईने में तू न सही.


बहुत सताएगी मिलने की आरजू इक दिन
कि मुझको तेरी, तुझे मेरी जुस्तजू न सही.


नज़र मिले न मिले फिर भी बात कर लेना
हमारे दर्मियां कुछ वज्हे-गुफ्तगू न सही.


हमारे दौर की रफ़्तार तो सलामत है
लरजते, टूटते लम्हों की आबरू न सही।


किसी रफ़ीक के क़दमों की चाप तो आये
दरे-खयाल पे अब दस्तके-अदू न सही.


तेरे हिसारे-नज़र में है मेरी जामादरी
ये और बात मुझे हाज़ते- रफू न सही.


हमारे वास्ते ये ज़िन्दगी बसर कर लो
तुम्हारे दिल में अब जीने की आरजू न सही.


गुज़िश्ता वक़्त की धुंधली सी याद बाकी है
हरेक लम्हे की तस्वीर हू-ब-हू न सही.


असीरे-हल्का-ये- वहमो-गुमां न हो गौतम
तू आज अपनी हकीकत के रू-ब-रू न सही.


----देवेंद्र गौतम 

बुधवार, 17 मार्च 2010

जेहनो-दिल में रेंगती हैं......

जेहनो-दिल में रेंगती हैं अनकही बातें बहुत.
दिन तो कट जातें हैं लेकिन सख्त हैं रातें बहुत.

तुम अभी से बदगुमां हो दोस्त! ये तो इब्तिदा है
जिंदगी की राह में होंगी अभी घातें बहुत.

दिल की पथरीली ज़मीं तो फिर भी खाली ही रही
सब्ज़ गालीचे बिछाने आयीं बरसातें बहुत.

कोई बतलाये कहां संजो के रखूं , क्या करूं
मेरी पेशानी पे हैं माजी की सौगातें बहुत.

उन दिनों भी उनसे इक दूरी सी रहती थी बनी
जिन दिनों आपस में होतीं थीं मुलाकातें बहुत.

देखना मैं बांधता हूं अब तखय्युल के तिलिस्म
तुम यहां दिखला चुके अपनी करामातें बहुत.


------देवेंद्र गौतम 

सोमवार, 8 मार्च 2010

कदम- दर-कदम कुछ.....

कदम- दर-कदम कुछ नसीहत रही है.
बुजुर्गों की हमपे इनायत रही है.

मयस्सर नहीं उनको धुंधली किरन भी
जिन्हें रौशनी की जरूरत रही है.

न तहज़ीब ढूंढो कि इन बस्तियों में
न सूरत रही है न सीरत रही है.

कभी बैठकर राह तकते किसी की
मगर इतनी कब मुझको फुर्सत रही है.

घरोंदे बनाकर उन्हें तोड़ देना
यही मेरी अबतक की फितरत रही है.

हवाओं का क्या है कभी रुख बदल दें
हवाओं पे किसकी हुकूमत रही है.

----देवेंद्र गौतम  

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

तुम भी बदले, हम भी बदले......

तुम भी बदले, हम भी बदले, अब वो दिन वो रात कहां .
मिलने को मिलते हैं लेकिन अब पहली सी बात कहां.


उसकी सीप सी आंखें  छलकीं, दो मोती फिर मुझतक आये
मेरे दिल का टूटा प्याला, रक्खूं ये सौगात कहां.


हम सहरा वाले हैं हमसे मौसम के अहवाल न पूछ
जाने अब्र कहाँ छाते हैं, होती है बरसात कहां.


तुम शह देकर इतराते हो, मेरी अगली चाल भी देखो
बाज़ी तो अब शुरू हुई है, खाई हमने मात कहां.


सुनने वाले कब सुनते हैं सुनने वाली बातें अब
कहने वाले भी कहते हैं कहने वाली बात कहां.


----देवेंद्र गौतम  

बुधवार, 3 मार्च 2010

राई को पर्वत.......

राई को पर्वत बनाकर देखना.
बात जितनी हो बढ़ाकर देखना.


जाने किसमें हो अहल्या का निवास
तुम हरेक पत्थर को छूकर देखना.


नाखुदा को भी पड़ा है बारहा
कतरे-कतरे में समंदर देखना.


आज जाने दो मुझे फुर्सत नहीं है
फिर कभी मुझसे उलझकर देखना.


लाख मत चाहो मगर तुमको पड़ेगा
पाओं को बनते हुए सर देखना.


----देवेंद्र  गौतम 

मंगलवार, 2 मार्च 2010

महलों से बेहतर ....

महलों से बेहतर होते हैं.
फूस के घर भी घर होते हैं.


मीठे-मीठे काट के रख दें
ऐसे भी खंज़र होते हैं.


घर में दीवारें होती हैं
दीवारों में दर होते हैं.


जिनपर आंख नहीं टिक पातीं
कुछ ऐसे मंज़र होते हैं.


खुद पे जोर नहीं चलता तो
आपे से बाहर होते हैं.


हमको खुद हैरत होती है
शाम को जिस दिन घर होते हैं.


फूलों में भी चुभन होती है
कांटे भी दिलवर होते हैं.


खून की होली खेलने वाले
अपने लहू से तर होते हैं.


बातें जख्मी कर जाती हैं
लफ़्ज़ों में निश्तर होते हैं.


--देवेंद्र गौतम 

सोमवार, 1 मार्च 2010

फ़ना होते हुए.....

फ़ना होते हुए दीवार-ओ-दर की.
बड़ी मुद्दत पे याद आयी है घर की.


बना लेना घरौंदे इल्म-ओ-फन के
अभी कुछ खाक छानो दर-ब-दर की.


खुदा रूपोश होता जा रहा है
के आंखें खुल रहीं हैं अब बशर की.


रवां होता गया अपने जुनूं में
हवा जिसको नज़र आयी जिधर की.


हम अपनी मंजिलों से आशना हैं
ज़रुरत क्या है हमको राहबर की.


------देवेंद्र गौतम