सर पे न यूं बिठाइए सरदार समझकर.
कूड़े में डाल आइए बेकार समझकर
रावण का वो वंशज है, पता बाद में चला
पूजा था जिसे राम का अवतार समझकर
सर पे न यूं बिठाइए सरदार समझकर.
कूड़े में डाल आइए बेकार समझकर
रावण का वो वंशज है, पता बाद में चला
पूजा था जिसे राम का अवतार समझकर
कथनी-करनी एक हो जिसकी, ऐसी इक तसवीर बनो.
सबके पांव में बेड़ी डाली, खुद की भी जंजीर बनो.
कब्र में लटके पांव हैं लेकिन, फिर भी कुर्सी की लालच
हमको अग्निवीर बनाया तुम भी अग्निवीर बनो.
कसेगी
या न कसेगी नकेल क्या होगा.
अनाड़ी
हाथों में पासा है, खेल
क्या होगा
उड़ेल
सकता है जितना उड़ेल, क्या
होगा.
छुछुंदरों
पे चमेली का तेल, क्या
होगा.
तुम्हारे
हाथ में पत्थर है, चला
सकते हो
अगर उठा
लिया हमने गुलेल, क्या
होगा.
हमें
ज़मीं की तहों का ख़याल रहता है
वो
पूछते हैं सितारों का खेल क्या होगा.
जुनूं
की कार ठिकाने पे कभी पहुंची है
धकेल
सकता है जितना धकेल, क्या
होगा.
करार हो
भी गया तो वो टिक न पाएगा
भला
अंधेरे उजाले का मेल क्या होगा.
दिलों को जोड़ने वाला सुनहरा तार खो
बैठे..
कहानी कहते-कहते
हम कई किरदार खो बैठे.
हमें महसूस जो
होता है खुल के कह नहीं पाते
कलम तो है वही
लेकिन कलम की धार खो बैठे.
हरेक सौदा
मुनाफे में पटाना चाहता है वो
मगर डरता भी है,
ऐसा न हो बाजार खो बैठे.
कभी ऐसी हवा आई
कि सब जंगल दहक उट्ठे
कभी बारिश हुई
ऐसी कि हम अंगार खो बैठे.
नशा शोहरत का
पर्वत से गिरा देता है खाई में
खुद अपने फ़न के
जंगल में कई फ़नकार खो बैठे.
खुदा होता तो
मिल जाता मगर उसके तवक्को में
नजर के सामने
हासिल था जो संसार खो बैठे.
मेरी यादों के
दफ्तर में कई ऐसे मुसाफिर हैं
चले हमराह लेकिन
राह में रफ्तार खो बैठे.
हमारे सामने अब
धूप है, बारिश है, आंधी है
कि जिसकी छांव
में बैठे थे वो दीवार खो बैठे
अगर सुर से मिलाओ सुर तो फिर संगीत बन
जाए
वो पायल क्या
जरा बजते ही जो झंकार खो बैठे.
-देवंद्र गौतम
सामने जो कुछ भी है मंजर कहो.
अब जो कहना है उसे खुलकर कहो.
फूल बतलाओगे तो मानेगा कौन
हाथ में पत्थर है तो पत्थर कहो.
फिर दिखा देंगे सुहाने ख्वाब कुछ
लाख तुम हालात को बदतर कहो.
मिल गई ऊंची उड़ानों की सज़ा
किस तरह काटे गए सहपर कहो.
खाद-पानी तो मुकम्मल थी मगर
खेत फिर कैसे हुए बंजर कहो.
वक्त का क्यों रख नहीं पाते खयाल
घर से कितना दूर है दफ्तर कहो.
-देवेंद्र गौतम
कब्र में लेटे हुए शैतान को जिंदा किया.
आप शर्मिंदा हुए हमको भी शर्मिंदा किया.
एक-इक कर कटघरे में कर दिया सबको खड़ा
छुप नहीं पाया मगर जिस जुर्म पे पर्दा किया.
दान में पाया था या जबरन वसूला था, कहो
क्या गटक जाने की खातिर आपने चंदा किया.
भूल कर बैठे उसे पहचानने में देर कर दी
वो गले का हार था तुमने जिसे फंदा किया.
शक्ल बतलाती है कि कीमत करोड़ों में लगी
कुछ बताओ तो कहां ईमान का सौदा किया.
चाल उनकी देखके सर नोचता भगवान भी
सोचता होगा ये किस इंसान को पैदा किया.
-देवेंद्र गौतम
कुछ नजाकत और बढ़ जाती है उसकी चाल में.
जब
फंसी होती है चिड़िया इक शिकारी जाल में.
जा
चुका है जो न लौटेगा किसी भी हाल में
क्या
नदी वापस कभी आती है अपने ताल में?
जब
मुकर्रर थी सज़ा सूली हमें चढ़ना ही था
फिर
सफाई किसलिए देते किसी भी हाल में.
तितलियां,
भौंरे, परिंदे, पेड़-पौधे और गुल
जाने
क्या-क्या है फंसा इस बागवां के जाल में.
हाथ से
निकली हुई खुशियां हमें वापस करे
ऐसा इक
लम्हा बना होगा हजारों साल में.
इक
शिकारी ने बिछा रखी थीं बारूदी सुरंगें
शेर को
छुपना पड़ा था मेमने की खाल में.
वो
किसी के हाथ का हथियार बन जाएं कहीं
इसलिए
तो धार भी देते नहीं हैं ढाल में.
एक
झोंके में तअल्लुक पेड़ से तोड़ा मगर
खुश्क
पत्तों का भरोसा टिक रहा था डाल में.
थोड़ा छुप जाता है लेकिन थोड़ा दिख
ही जाता है.
लाख मुखौटों के अंदर हो चेहरा दिख
ही जाता है.
जितनी आजादी का दावा करना है, करते
रहिए
सांसों पर भी लगा हुआ है पहरा, दिख ही जाता है.
हमको घास के हर तिनके में, लाख न
चाहूं
हल्दीघाटी के अंदर का राणा दिख ही
जाता है.
जिनकी आंखें गहराई में गोते खाती
हैं उनको
रेत के अंदर नींद में डूबा दरिया
दिख ही जाता है.
जाम पड़ा हो, चुप बैठा हो, तो शायद छुप भी जाए
पटरी-पटरी चलने वाला पहिया दिख ही
जाता है.
सबकी आंखों पर चढ़ता है उनकी आंखों
का जादू
वो दिखलाएं तो सहरा में दरिया दिख
ही जाता है.
लाख
दानां थे, हमें नादान हो जाना पड़ा. दानां-बुद्धिमान
दोस्ती
के नाम पे कुर्बान हो जाना पड़ा.
वो
अचानक सामने हथियार लेकर आ गए
फिर
हमें भी जंग का मैदान हो जाना पड़ा.
सांस
की आवाज़ भी मंजूर होने को न थी
जान
प्यारी थी हमें, बेजान हो जाना पड़ा.
देवता
के भेष में फिरता हुआ चारो तरफ
एक
दानव था जिसे इंसान हो जाना पड़ा.
उनके
चेहरे के मुखौटे का पता हमको भी था
जानकर
लेकिन हमें अनजान हो जाना पड़ा.
आपकी
झोली बड़ी होती गई, भरती गई
आप निर्धन थे मगर धनवान हो जाना पड़ा.
-देवेंद्र गौतम
उनका
सूरज ढल रहा है.
चक्र
उल्टा चल रहा है.
खटमलों
का एक कुनबा
कुर्सियों
में पल रहा है.
आईने
की आंख को भी
एक
चेहरा खल रहा है.
मुट्ठियों
में राख लेकर
हाथ
अपने मल रहा है.
आग
से जिसने भी खेला
घर
उसी का जल रहा है.
इक
तरफ होठों पे पपड़ी
इक
तरफ जल-थल रहा है.
भाड़
में जाए ये दुनिया
काम
अपना चल रहा है.
इक नगर की इक गली में इक
मकां था, मिट गया.
जो
हमारे प्यार का अंतिम निशां था, मिट गया?
कुछ गुमां दिल में उठा, टूटे तअल्लुक भी कई
तल्खियां बढ़ती गईं, जो
दर्मियां था मिट गया.
मेरे
हिस्से की जो थोड़ी सी ज़मीं थी गुम हुई
मेरे
हिस्से का जो थोड़ा आस्मां था मिट गया.
जो
हकीकत थी मेरे दिल में रकम होती गई
एक
गोशे में कहीं दिल का गुमां था मिट गया.
अब
कहीं कोई विरासत ही नहीं बाकी रही
रहगुजर
पे जो नकूशे-कारवां था मिट गया.
राख
के अंदर दबी चिनगारियों को क्या पता
आग
की लपटों में जितना भी धुआं था मिट गया.
-देवेंद्र गौतम
पुराने घर गिराए जा रहे हैं.
निशां सारे मिटाए जा रहे
हैं.
कई चेहरे छुपाए जा रहे हैं.
कई चेहरे दिखाए जा रहे हैं.
उन्हें हमसे गरज कुछ भी नहीं है
हमीं रिश्ता निभाए जा रहे
हैं.
बजाहिर बात करते हैं गुलों
की
मगर कांटे बिछाए जा रहे
हैं.
वहीं पर जुर्म के धब्बे
मिटेंगे
जहां मुजरिम बनाए जा रहे
हैं.
भले ही कान पकते हों सभी के
वो अपनी धुन में गाए जा रहे
हैं.
हमीं जयकार करते हैं हमेशा
हमीं पे जुल्म ढाए जा रहे
हैं.
-देवेंद्र गौतम
एक चिनगारी की है दरकार
जैसी भी सही
इसलिए तो चार पहिए की तलब
उनको लगी
पोर्टिको को चाहिए थी कार
जैसी भी सही.
हर सड़क पे इक सफर जारी रहे
मेरे खुदा!
काफिला चलता रहे रफ्तार
जैसी भी सही.
आखिरश वो वक्त के मलवे में दबते
रह गए
तोड़ने निकले थे जो दीवार
जैसी भी सही.
चार टुकड़ों में उसे करने का फन हमको पता
पास तो आए कोई तलवार जैसी
भी सही.
धुंद
में लिपटे सही मंजर मगर दिखते रहें
रौशनी
कायम रहे बीमार जैसी भी सही.
कुछ दरारें ढूंढ लेगी और
बहती ही रहेगी
रुक नहीं सकती नदी की धार
जैसी भी सही.
-देवेंद्र गौतम
तू पतझड़ में एक हरा पौधा बन जा.
पारस छू ले लोहे से सोना बन जा.
मौके मुश्किल से मिलते हैं,
लाभ उठा
इस चेहरे को बदल नया चेहरा
बन जा.
नई बिसातों से कुछ बात नहीं
बनती
बिछी बिसातों के अंदर मोहरा
बन जा.
बहुत दिनों तक दबा के रखे
राज़ कई
अब सच के दरवाजे का पर्दा
बन जा.
साये बदन से ज्यादा कीमत
रखते हैं
जिसका बदन दिखे उसका साया
बन जा
कल तक सबकी प्यास बुझाती ऐ
नदिया!
आज समंदर से मिलकर खारा बन
जा.
-देवेंद्र
गौतम
सबका
हुनर शुमार में लाया न जाएगा.
हर बीज
से दरख्त उगाया न जाएगा.
हर
शख्स का नसीब बनाया न जाएगा.
ये
जाम हर किसी को पिलाया न जाएगा.
हर
शख्स भले हाथ झटक ले जहान में
लेकिन
कभी भी छोड़के साया न जाएगा.
कैसे
पता चलेगा कि पिसना है सभी को
गेहूं
में अगर घुन को मिलाया न जाएगा.
महसूस
तो होगा कि मना लें चलो मगर
रूठे
हुओं को फिर भी मनाया न जाएगा.
दरिया
की हरेक मौज जिसे ढूंढती फिरे
वो शख्स
डूबने से बचाया न जाएगा.
शिकारी जा चुके लेकिन
मचान हैं साहब!
मकीं को ढूंढते खाली
मकान हैं साहब!
वो जिनको तीर चलाने का
फन नहीं आता
उन्हीं के हाथ में सारे
कमान हैं साहब!
जो बोल सकते थे अपनी
ज़ुबान बेच चुके
जो बेज़ुबान थे वो बेज़ुबान
हैं साहब!
हमारी बात अदालत तलक
नहीं पहुंची
जो दर्ज हो न सके वे
बयान हैं साहब!
बस उनके खून-पसीने की
कमाई दे दो
ज़मीं को सींचने वाले
किसान हैं साहब!
जड़ों से उखड़ा हुआ पेड़
हूं मगर अबतक
मेरे वजूद के कुछ तो
निशान हैं साहब!
-देवेंद्र गौतम