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सोमवार, 15 अप्रैल 2024

कलम तो है वही लेकिन कलम की धार खो बैठे

 

दिलों को जोड़ने वाला सुनहरा तार खो बैठे..

कहानी कहते-कहते हम कई किरदार खो बैठे.

 

हमें महसूस जो होता है खुल के कह नहीं पाते

कलम तो है वही लेकिन कलम की धार खो बैठे.

 

हरेक सौदा मुनाफे में पटाना चाहता है वो

मगर डरता भी है, ऐसा न हो बाजार खो बैठे.

 

कभी ऐसी हवा आई कि सब जंगल दहक उट्ठे

कभी बारिश हुई ऐसी कि हम अंगार खो बैठे.

 

नशा शोहरत का पर्वत से गिरा देता है खाई में

खुद अपने फ़न के जंगल में कई फ़नकार खो बैठे.

 

खुदा होता तो मिल जाता मगर उसके तवक्को में

नजर के सामने हासिल था जो संसार खो बैठे.

 

मेरी यादों के दफ्तर में कई ऐसे मुसाफिर हैं

चले हमराह लेकिन राह में रफ्तार खो बैठे.

 

हमारे सामने अब धूप है, बारिश है, आंधी है

कि जिसकी छांव में बैठे थे वो दीवार खो बैठे

 

अगर सुर से मिलाओ सुर तो फिर संगीत बन जाए

वो पायल क्या जरा बजते ही जो झंकार खो बैठे.

-देवंद्र गौतम

रविवार, 14 अप्रैल 2024

किस तरह काटे गए सहपर कहो

 

सामने जो कुछ भी है मंजर कहो.

अब जो कहना है उसे खुलकर कहो.

 

फूल बतलाओगे तो मानेगा कौन

हाथ में पत्थर है तो पत्थर कहो.

 

फिर दिखा देंगे सुहाने ख्वाब कुछ

लाख तुम हालात को बदतर कहो.

 

मिल गई ऊंची उड़ानों की सज़ा

किस तरह काटे गए सहपर कहो.

 

खाद-पानी तो मुकम्मल थी मगर

खेत फिर कैसे हुए बंजर कहो.

 

वक्त का क्यों रख नहीं पाते खयाल

घर से कितना दूर है दफ्तर कहो.

-देवेंद्र गौतम

बुधवार, 10 अप्रैल 2024

कब्र में लेटे हुए शैतान को जिंदा किया

 

कब्र में लेटे हुए शैतान को जिंदा किया.

आप शर्मिंदा हुए हमको भी शर्मिंदा किया.

 

एक-इक कर कटघरे में कर दिया सबको खड़ा

छुप नहीं पाया मगर जिस जुर्म पे पर्दा किया.

 

दान में पाया था या जबरन वसूला था, कहो

क्या गटक जाने की खातिर आपने चंदा किया.

 

भूल कर बैठे उसे पहचानने में देर कर दी

वो गले का हार था तुमने जिसे फंदा किया.

 

शक्ल बतलाती है कि कीमत करोड़ों में लगी

कुछ बताओ तो कहां ईमान का सौदा किया.

 

चाल उनकी देखके सर नोचता भगवान भी

सोचता होगा ये किस इंसान को पैदा किया.

-देवेंद्र गौतम

शनिवार, 23 मार्च 2024

क्या नदी वापस कभी आती है अपने ताल में?

कुछ नजाकत और बढ़ जाती है उसकी चाल में.

जब फंसी होती है चिड़िया इक शिकारी जाल में.

 

जा चुका है जो न लौटेगा किसी भी हाल में

क्या नदी वापस कभी आती है अपने ताल में?

 

जब मुकर्रर थी सज़ा सूली हमें चढ़ना ही था

फिर सफाई किसलिए देते किसी भी हाल में.

 

तितलियां, भौंरे, परिंदे, पेड़-पौधे और गुल

जाने क्या-क्या है फंसा इस बागवां के जाल में.

 

हाथ से निकली हुई खुशियां हमें वापस करे

ऐसा इक लम्हा बना होगा हजारों साल में.

 

इक शिकारी ने बिछा रखी थीं बारूदी सुरंगें

शेर को छुपना पड़ा था मेमने की खाल में.

 

वो किसी के हाथ का हथियार बन जाएं कहीं

इसलिए तो धार भी देते नहीं हैं ढाल में.

 

एक झोंके में तअल्लुक पेड़ से तोड़ा मगर

खुश्क पत्तों का भरोसा टिक रहा था डाल में.

शुक्रवार, 22 मार्च 2024

लाख मुखौटों के अंदर हो चेहरा दिख ही जाता है

 

थोड़ा छुप जाता है लेकिन थोड़ा दिख ही जाता है.

लाख मुखौटों के अंदर हो चेहरा दिख ही जाता है.

 

जितनी आजादी का दावा करना है, करते रहिए

सांसों पर भी लगा हुआ है पहरा, दिख ही जाता है.

 

हमको घास के हर तिनके में, लाख न चाहूं

हल्दीघाटी के अंदर का राणा दिख ही जाता है.

 

जिनकी आंखें गहराई में गोते खाती हैं उनको

रेत के अंदर नींद में डूबा दरिया दिख ही जाता है.

 

जाम पड़ा हो, चुप बैठा हो, तो शायद छुप भी जाए

पटरी-पटरी चलने वाला पहिया दिख ही जाता है.

 

सबकी आंखों पर चढ़ता है उनकी आंखों का जादू

वो दिखलाएं तो सहरा में दरिया दिख ही जाता है.

 

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

दोस्ती के नाम पे कुर्बान हो जाना पड़ा

 

लाख दानां थे, हमें नादान हो जाना पड़ा. दानां-बुद्धिमान

दोस्ती के नाम पे कुर्बान हो जाना पड़ा.

 

वो अचानक सामने हथियार लेकर आ गए

फिर हमें भी जंग का मैदान हो जाना पड़ा.

 

सांस की आवाज़ भी मंजूर होने को न थी

जान प्यारी थी हमें, बेजान हो जाना पड़ा.

 

देवता के भेष में फिरता हुआ चारो तरफ

एक दानव था जिसे इंसान हो जाना पड़ा.

 

उनके चेहरे के मुखौटे का पता हमको भी था

जानकर लेकिन हमें अनजान हो जाना पड़ा.

 

आपकी झोली बड़ी होती गई, भरती गई

आप निर्धन थे मगर धनवान हो जाना पड़ा.

-देवेंद्र गौतम

 


बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

उनका सूरज ढल रहा है.

 

उनका सूरज ढल रहा है.

चक्र उल्टा चल रहा है.

 

खटमलों का एक कुनबा

कुर्सियों में पल रहा है.

 

आईने की आंख को भी

एक चेहरा खल रहा है.

 

मुट्ठियों में राख लेकर

हाथ अपने मल रहा है.

 

आग से जिसने भी खेला

घर उसी का जल रहा है.

 

इक तरफ होठों पे पपड़ी

इक तरफ जल-थल रहा है.

 

भाड़ में जाए ये दुनिया

काम अपना चल रहा है.

 

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023

जो हमारे प्यार का अंतिम निशां था, मिट गया?

 

इक नगर की इक गली में इक मकां था, मिट गया.

जो हमारे प्यार का अंतिम निशां था, मिट गया?

 

कुछ गुमां दिल में उठा, टूटे तअल्लुक भी कई

तल्खियां बढ़ती गईं, जो दर्मियां था मिट गया.

 

मेरे हिस्से की जो थोड़ी सी ज़मीं थी गुम हुई

मेरे हिस्से का जो थोड़ा आस्मां था मिट गया.

 

जो हकीकत थी मेरे दिल में रकम होती गई  

एक गोशे में कहीं दिल का गुमां था मिट गया.

 

अब कहीं कोई विरासत ही नहीं बाकी रही

रहगुजर पे जो नकूशे-कारवां था मिट गया.

 

राख के अंदर दबी चिनगारियों को क्या पता

आग की लपटों में जितना भी धुआं था मिट गया.

-देवेंद्र गौतम

गुरुवार, 26 जनवरी 2023

पुराने घर गिराए जा रहे हैं.

 पुराने घर गिराए जा रहे हैं.

निशां सारे मिटाए जा रहे हैं.

 

कई चेहरे छुपाए जा रहे हैं.

कई चेहरे दिखाए जा रहे हैं.

 

उन्हें हमसे गरज कुछ भी नहीं है

हमीं रिश्ता निभाए जा रहे हैं.

 

बजाहिर बात करते हैं गुलों की

मगर कांटे बिछाए जा रहे हैं.

 

वहीं पर जुर्म के धब्बे मिटेंगे

जहां मुजरिम बनाए जा रहे हैं.

 

भले ही कान पकते हों सभी के

वो अपनी धुन में गाए जा रहे हैं.

 

हमीं जयकार करते हैं हमेशा

हमीं पे जुल्म ढाए जा रहे हैं.


-देवेंद्र गौतम

सोमवार, 16 जनवरी 2023

एक चिनगारी की है दरकार जैसी भी सही

 

 फूस जलने के लिए तैयार जैसी भी सही.

एक चिनगारी की है दरकार जैसी भी सही

 

इसलिए तो चार पहिए की तलब उनको लगी

पोर्टिको को चाहिए थी कार जैसी भी सही.

 

हर सड़क पे इक सफर जारी रहे मेरे खुदा!

काफिला चलता रहे रफ्तार जैसी भी सही.

 

आखिरश वो वक्त के मलवे में दबते रह गए

तोड़ने निकले थे जो दीवार जैसी भी सही.


चार टुकड़ों में उसे करने का फन हमको पता

पास तो आए कोई तलवार जैसी भी सही.

 

धुंद में लिपटे सही मंजर मगर दिखते रहें

रौशनी कायम रहे बीमार जैसी भी सही.

 

कुछ दरारें ढूंढ लेगी और बहती ही रहेगी

रुक नहीं सकती नदी की धार जैसी भी सही.

-देवेंद्र गौतम

शनिवार, 14 जनवरी 2023

पारस छू ले लोहे से सोना बन जा.

 

तू पतझड़ में एक हरा पौधा बन जा.

पारस छू ले लोहे से सोना बन जा.

 

मौके मुश्किल से मिलते हैं, लाभ उठा

इस चेहरे को बदल नया चेहरा बन जा.

 

नई बिसातों से कुछ बात नहीं बनती

बिछी बिसातों के अंदर मोहरा बन जा.

 

बहुत दिनों तक दबा के रखे राज़ कई

अब सच के दरवाजे का पर्दा बन जा.

 

साये बदन से ज्यादा कीमत रखते हैं

जिसका बदन दिखे उसका साया बन जा

 

कल तक सबकी प्यास बुझाती ऐ नदिया! 

आज समंदर से मिलकर खारा बन जा.

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

हर बीज से दरख्त उगाया न जाएगा.

 


-देवेंद्र गौतम

 

सबका हुनर शुमार में लाया न जाएगा.

हर बीज से दरख्त उगाया न जाएगा.

 

हर शख्स का नसीब बनाया न जाएगा.

ये जाम हर किसी को पिलाया न जाएगा.

 

हर शख्स भले हाथ झटक ले जहान में

लेकिन कभी भी छोड़के साया न जाएगा.

 

कैसे पता चलेगा कि पिसना है सभी को

गेहूं में अगर घुन को मिलाया न जाएगा.

 

महसूस तो होगा कि मना लें चलो मगर

रूठे हुओं को फिर भी मनाया न जाएगा.

 

दरिया की हरेक मौज जिसे ढूंढती फिरे

वो शख्स डूबने से बचाया न जाएगा.

रविवार, 30 जनवरी 2022

मकीं को ढूंढते खाली मकान हैं साहब!

शिकारी जा चुके लेकिन मचान हैं साहब!

मकीं को ढूंढते खाली मकान हैं साहब!

 

वो जिनको तीर चलाने का फन नहीं आता

उन्हीं के हाथ में सारे कमान हैं साहब!

 

जो बोल सकते थे अपनी ज़ुबान बेच चुके

जो बेज़ुबान थे वो बेज़ुबान हैं साहब!

 

हमारी बात अदालत तलक नहीं पहुंची

जो दर्ज हो न सके वे बयान हैं साहब!

 

बस उनके खून-पसीने की कमाई दे दो

ज़मीं को सींचने वाले किसान हैं साहब!

 

जड़ों से उखड़ा हुआ पेड़ हूं मगर अबतक

मेरे वजूद के कुछ तो निशान हैं साहब!

-देवेंद्र गौतम


शनिवार, 22 जनवरी 2022

बस एक फूंक में जलता दिया बुझा डाला

 

बस एक फूंक में जलता दिया बुझा डाला.

जो इक निशान उजाले का था मिटा डाला.

 

उसके पुरखों ने बनाया था उसी की खातिर

उसे पता भी है, किसका मकां जला डाला?

 

लगाई आग जो उसने तो शिकायत कैसी

जो देखने की तमन्ना थी वो दिखा डाला.

 

हमारी साख बची है अभी तो ग़म क्या है

बढ़ा है कर्ज मगर ब्याज तो चुका डाला.

 

तमाशबीन की पलकें ठहर गईं गौतम

ऐसा बंदर था मदारी को ही नचा डाला.

-देवेंद्र गौतम

रविवार, 9 जनवरी 2022

कत्आ

 

एक कत्आ

फूलों के पहलू में बैठे खंजर थे

चंदन के पेड़ों से लिपटे विषधर थे.

कितने जहरीले थे हमसे मत पूछो

जितना बाहर थे उतना ही अंदर थे.

-देवेंद्र गौतम

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

ग़ज़लः साहब की हर बात हवाई होती है

 

हर बंदी के नाम रिहाई होती है.

साहब की हर बात हवाई होती है.

 

पहले चोंच लड़ाते हैं इक दूजे से

फिर आपस में हाथापाई होती है.

 

कौन गरीबों की फरियाद सुने आखिर

दौलतवालों की सुनवाई होती है.

 

एक-एक कर सब बाराती लौट चुके

देखें कब दुल्हन की विदाई होती है.

 

ऐसे लम्हे भी आते हैं जीवन में

ऊपर पर्वत नीचे खाई होती है.

 

बाहर-बाहर ईमां की बातें करते

अंदर-अंदर खूब कमाई होती है.

-देवेंद्र गौतम

 

 

गुरुवार, 6 मई 2021

हुकूमत में लचीलेपन की भी दरकार होती है

 

सभी की बात सुनती हो, वही सरकार होती है.

हुकूमत में लचीलेपन की भी दरकार होती है.

 

सियासत के लिए बर्बाद कर देते हो क्यों आखिर

बड़ी मुश्किल से कोई नस्ल जो तैयार होती है.

 

खुली आंखों से जो तसवीर दिखती है निगाहों को

वही तो बंद आंखों में कहीं साकार होती है.

 

हवेली दर हवेली राख का छिड़काव कर जाए

वो चिनगारी सही माने में तब अंगार होती है.

 

हवा सबके घरों की दास्तां कहती है लोगों से

मगर अपनी हक़ीकत से कहां दो चार होती है.

 

कई सपने हमारी नींद को झकझोर जाते हैं

हमारी आंख मुश्किल से मगर बेदार होती है

-देवेंद्र गौतम