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शनिवार, 29 जनवरी 2011

सब दरख्तों पे वही अक्से-खिज़ानी.......

सब दरख्तों पे वही अक्से-खिज़ानी कब तलक.
वक़्त के सूरज की ये शोला फ़िशानी कब तलक.


रास्तों की आँख से निकलेगा पानी कब तलक.
मंजिलों के नक्श होंगे इम्तहानी कब तलक.


दिल में शोला कब तलक, आँखों में पानी कब तलक.
रास्तों की खाक छाने जिंदगानी कब तलक.


हर बरस गुज़रा है हमपे एक आफत की तरह
ऐ खुदा! हमपे तुम्हारी मेहरबानी कब तलक.


ख्वाहिशों की धूप में तपता रहा दिल का चमन
यूँ मुरादों की उगेगी रातरानी कब तलक.


कब तलक कह पाऊंगा मैं आपबीती दोस्तों!
आप भी सुन पाएंगे मेरी कहानी कब तलक.


नींद की बस्ती में गौतम और भी तो लोग हैं
तू ही तन्हा ख्वाब देखे आसमानी कब तलक


-----देवेन्द्र गौतम .

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

अहसास के सीने में जो......

अहसास के सीने में जो गिर्दाबनुमा था.
ज़ज्बों की नदी में वही सैलाबनुमा था.


जलवा तेरा जैसे परे-सुर्खाबनुमा था.
आया था सरे-चश्म मगर ख्वाबनुमा था.


सहरा में घनी प्यास लिए लोग खड़े थे
कुछ दूर झलकता हुआ वो आबनुमा था.


मिलता था वही रात को ख्वाबों की गुफा में
जो दिन की घनी धूप में नायाबनुमा था.


हल्का सा तवारुफ़ था तो थोड़ी सी मुलाक़ात
वो अजनवी जैसा था पर अह्बाबनुमा था.


आवाज़ थी उलझी हुई गौतम के गले में
सीने में अज़ब खौफ का जह्राबनुमा था.


----देवेन्द्र गौतम 

बुधवार, 26 जनवरी 2011

इस कदर बज्मे-सुखन में तो......

इस कदर बज्मे-सुखन में तो ज़बांपोशी न थी.
और सब था बस मेरी फितरत में ख़ामोशी न थी.


रौशनी से तर-ब-तर लम्हों की सरगोशी न थी.
जिंदगी सरगोशी-ए-बज्मे-फरामोशी न थी.


बेबसी के खार थे चारो तरफ बिखरे हुए
जिंदगी की राह में खुशियों की गुलपोशी न थी.


गर्दिशे-हालत की काली फ़ज़ा रौशन रही
वक़्त की बाँहों में यूँ तारीक़ ख़ामोशी न थी.


रोजो-शब की उलझनों ने कर दिया पागल मुझे
बेखुदी तो थी मगर मुझमें जुनूंपोशी न थी.


गूंजते रहते थे कुछ यादों के नग्मे हर तरफ
जब तलक अहसास के आंगन में ख़ामोशी न थी.


आपके होठों पे कुछ लफ़्ज़ों के सागर थे मगर
आपके अंदाज़ में पहली सी मदहोशी न थी.


तीरगी की साख थे फैले सियह राहों में हम
नंगे पेड़ों की तो हमसे आबरू-पोशी न थी.


आज गौतम आशना चेहरों से कतराने लगा
कल तलक इसकी तो यूं अपनों से रूपोशी न थी.


---देवेंद्र गौतम 

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

रोजो-शब का अज़ाब....

रोजो-शब का अज़ाब देखेंगे.
नींद आई तो ख्वाब देखेंगे.


तीरगी के हिजाब में रहकर
रौशनी बेहिजाब देखेंगे.


सामने भी हुए तो क्या हासिल
दरमियां  हम हिजाब देखेंगे.


जिंदगी की तवील राहों में
रंजिशें बेहिसाब देखेंगे.


आइना गुफ्तगू पे उतरेगा
आप अपना जवाब देखेंगे.


हर वरक पर उगेंगे अक्स तेरे
जब भी कोई किताब देखेंगे.


मैकशी लाख हो बुरी लेकिन
आज पीकर शराब देखेंगे.


ख्वाहिशों के चमन में हम गौतम
रोज़ ताज़ा गुलाब देखेंगे


----देवेंद्र गौतम .

रविवार, 23 जनवरी 2011

यही खाना-ब -दोशी है.....

यही खाना-ब -दोशी है, इसे बेहतर समझ लेना.
जहां रुकना, जहां टिकना, उसी को घर समझ लेना.


मेरे अन्दर है कितना मौसमों का डर, समझ लेना.
मैं फूलों का मुहाफ़िज़ हूं, मुझे पत्थर समझ लेना.


कभी घर में ही बन जाता है दफ्तर, यूं भी होता है.
कभी दफ्तर को ही पड़ता है अपना घर समझ लेना.


जहां तक फ़ैल सकते हैं, तुम अपने पाओं फैलाओ
मगर फैलेगी कितना अक्ल की चादर समझ लेना


---देवेंद्र गौतम .

शनिवार, 22 जनवरी 2011

झील के पानी में आया है.....

झील के पानी में आया है उबाल.
जाने कैसा होगा दरियाओं का हाल.


एक सिक्के के कई पहलू निकाल.
बाल की यूं भी निकल आती है खाल.


इस सदी में चैन से कोई नहीं
मेरा, तेरा, इसका, उसका एक हाल.


बाढ़ तो ऐसी कभी देखी न थी
और न देखा था कभी ऐसा अकाल.


बेबसी का आइना थी खामुशी
खुश्क आखों में थे कुछ भीगे सवाल.


आप प्यादा हैं, चलें एक-एक घर
हम चलेंगे ढाई घर की एक चाल.


तुमसे मिलने की ख़ुशी जाती रही
रह गया तुमसे बिछड़ने का मलाल.


----देवेंद्र गौतम 

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

इक नयी पौध अब.....

इक नयी पौध अब उगाये तो.
कोई बरगद की जड़ हिलाए तो.


अपना चेहरा जरा दिखाए तो.
भेड़िया फिर नगर में आये तो.


बादलों की तरह बरस पड़ना
आग घर में कोई लगाये तो.


लोग सड़कों पे निकल आयेंगे
एक आवाज़ वो लगाये तो.


उनके कानों पे जूं न रेंगा पर
मेरी बातों पे तिलमिलाए तो.


फिर खुदा भी बचा न पायेगा
पाओं इक बार लडखडाये तो.


-----देवेंद्र गौतम 

जो नदी चट्टान से......

जो नदी चट्टान से निकली नहीं है.
वो समंदर से कभी मिलती नहीं है.


हम हवाओं पे कमंदें डाल देंगे
ज़ुल्म की आंधी अगर रुकती नहीं है.


रास आ जाती हैं बेतरतीबियां भी
जिंदगी जब चैन से कटती नहीं है.


बादलों की ओट में सिमटा है सूरज
रात ढलकर भी अभी ढलती नहीं है.


अपने अंदर इस कदर डूबा हूं मैं
अब किसी की भी कमी खलती नहीं है.

---देवेंद्र गौतम  

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

आस्मां से कह रही है.....

आस्मां से कह रही है उलझनों की सरज़मीं.
लाख पैगम्बर हुए दुनिया वहीँ की है वहीँ.


पेड़-पौधे कट रहे हैं, खेत भी सूखे पड़े
गोद खाली कर रही है आजकल अपनी ज़मीं.


हर किसी ने हर किसी को हर तरफ धोखा दिया
अब किसी की बात पर कैसे करे कोई यकीं.


वक़्त इक ऐसा भी था कि रात-दिन का साथ था
वक़्त इक ऐसा भी है कि तुम कहीं और हम कहीं.


अब मेरे दिल में कोई रहता नहीं तो क्या हुआ
ये ज़रूरी तो नहीं कि हर मकां में हो मकीं.


----देवेंद्र गौतम 

बुधवार, 12 जनवरी 2011

इक इमारत खुद बनायीं.....

इक इमारत खुद बनायीं और खुद ढाई गयी.
फिर वही पिछले दिनों की भूल दुहराई गयी.

जाने कितनी बार इंसानी लहू डाला गया
आजतक लेकिन न अपने बीच की खाई गयी.

फिर तरक्की के नए औकात समझाए गए
फिर हवा के पाओं में ज़ंजीर पहनाई गयी.

जैसे दरिया में उठे कोई सुनामी की लहर
जिंदगी इस दौर में कुछ इस तरह आई गयी.

बस इसी तकरार में गुज़रा रफ़ाक़त का सफ़र
महफ़िलें उनकी उठीं न अपनी तन्हाई गयी.

-----देवेंद्र गौतम 

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

हर आइने में अबके.....

हर आइने में अबके अक्से-दिगर  मिलेंगे.
ढूंढोगे आदमी को तो जानवर मिलेंगे.

बंज़र ज़मीं पे अबके सब्ज़ा दिखाई देगा
ज़रखेज़ जंगलों में सूखे शज़र मिलेंगे.

सूरज की रौशनी में खोये हुए मनाज़िर
रातों की तीरगी में फुटपाथ पर मिलेंगे.

जाओ किसी नगर में पक्के मकां तलाशो
इस गाँव में तो बाबू! मिटटी के घर मिलेंगे.

बेहतर है कुछ नकाबें चेहरे पे तुम भी रख लो
नज़रें बदल-बदलके अहले-नज़र मिलेंगे.

जो आज हंस रहे हैं गौतम की बात सुनकर
इक रोज देख लेना अश्कों से तर मिलेंगे.

----देवेंद्र गौतम 

सोमवार, 10 जनवरी 2011

अब यहां कोई करिश्मा.....

अब यहां कोई करिश्मा या कोई जादू न हो.
आदमी बस आदमी बनकर रहे साधू न हो.

हर तरफ फैला रहे कमज़र्फ लोगों का हुजूम
शह्र की आबो-हवा अब इतनी बेकाबू न हो.

हुक्म आया है कि सब सहमे हुए आयें नज़र
फूल खिलता है खिले, लेकिन कहीं खुशबू न हो.

तेज़ लहरों से उभरती है सनाशाई सी कुछ
इस समंदर में मेरा खोया हुआ टापू न हो.

जा रहा है गांव से तो जा, मगर उसकी तरह
लौटकर आये तो तू भी शह्र का बाबू न हो.

----देवेंद्र गौतम 

सोमवार, 3 जनवरी 2011

वक़्त की आंच में हर लम्हा.....

वक़्त की आंच में हर लम्हा पिघलती गलियां.
हमसे बाबिस्ता हैं तहजीब की बूढी गलियां.

चांद-तारों की चमक आंखों में भरने वाले!
देख कचरे में पड़ी खाक में मिलती गलियां.

आते-जाते रहे हर सम्त से ख्वाबों के नबी
फिर भी चौंकी न कभी नींद की मारी गलियां.

हर तरफ प्यास का सहरा है कहां जाओगे
हर तरफ तुमको मिलेंगी युंही जलती गलियां.

आ! सिखा देंगी भटकने का सलीका तुमको
मेरे अहसास की सड़कों से निकलती गलियां.

सर्द आहों की फ़ज़ा और अंधेरों का सफ़र
सो गए लोग मगर आँख झपकती गलियां.

मन के मोती में चुभी सुई बिना धागे की
याद जब आयीं तेरे साथ सवंरती गलियां.

आओ देखो न! सदा देतीं हैं किसको गौतम
दिल के अंदाज़ से रह-रहके धड़कती गलियां.


----देवेंद्र गौतम  

कैसे-कैसे ख्वाब इन आंखों में....

कैसे-कैसे ख्वाब इन आंखों में संजोते थे हम.
नींद जब गहरी न थी तो देर तक सोते थे हम.

बारहा मिलते थे लेकिन टूटकर मिलते न थे
कुछ कसक रहती थी दिल में जब जुदा होते थे हम.

भीड़ में रखते थे हम भी इक तबस्सुम जेरे-लब
लेकिन जब होते थे तन्हा आंख भिंगोते थे हम.

उन दिनों हम भी नशे में खुलते थे कहते हैं लोग
बात कुछ करते न थे जब होश में होते थे हम.

लम्हा-लम्हा मुस्कुरा के थाम लेता था हमें
वक़्त की बहती नदी में हाथ जब धोते थे हम.


----देवेंद्र गौतम 

रविवार, 2 जनवरी 2011

अपनी हरेक उडान......

अपनी हरेक उडान समेटे परों में हम.
फिर आ चुके हैं लौटके अपने घरों में हम.

सीने में यूं तो रौशनी कुछ ख्वाहिशों की है
रहते हैं फिर भी ग़म के सियह मंजरों में हम.

हमने तमाम उम्र गुजारी है बेसबब
हीरे तलाशते रहें हैं पत्थरों में हम.

हम सब जला चुके हैं वसूलों की फाइलें
अब चैन से हैं जिंदगी के दफ्तरों में हम.

थोड़ी सी दुश्मनी भी ज़रूरी है इन दिनों
बेहिस पड़े हैं दोस्ती के चक्करों में हम.

ख्वाबों का इक गुहर तो दे आंखों की सीप में
जागे हुए हैं सदियों से अंधे घरों में हम.

दुनिया ने तीरगी के हमें ज़ख्म जो दिए
उसको भी क्यों न बाँट दें दीदावारों में हम

गौतम अभी यकीन की सरहद से दूर है
कैसे करें शुमार उसे हमसरों में हम.


----देवेंद्र गौतम 

आंख पथरा गयी....

आंख पथरा गयी बिखर से गए.
हम अंधेरे में आज डर से गए.

हम हुए माईले-सफ़र जिस दिन
रास्ते सब के सब ठहर से गए.

हर तरफ धुंद है, खमोशी है,
काफिले क्या पता किधर से गए.

इक जरा सा ख़ुलूस पाया तो
घाव पिछले दिनों के भर से गए.

आंधियों की करिश्मासाज़ी से
हम परिंदे तो बाल-ओ-पर से गए.

फिर कलंदर-सिफत हुआ सबकुछ
खुदगरज लोग इस नगर से गए.

----देवेंद्र गौतम