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शनिवार, 10 दिसंबर 2011

नज़र के सामने जो कुछ है अब सिमट जाये

ग़मों की धुंध जो छाई हुई है छंट जाये.
कुछ ऐसे ख्वाब दिखाओ कि रात कट जाये.

नज़र के सामने जो कुछ भी है सिमट जाये.
गर आसमान न टूटे, ज़मीं ही फट जाये.


गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

तमन्नाओं की नगरी को कहीं फिर से बसा लूंगा

तमन्नाओं की नगरी को कहीं फिर से बसा लूंगा.
यही दस्तूरे-दुनिया है तो खुद को बेच डालूंगा.

तुझे खंदक में जाने से मैं रोकूंगा नहीं लेकिन
जहां तक तू संभल पाए वहां तक तो संभालूंगा.


उसे मैं ढूंढ़ लाऊंगा जहां भी छुप के बैठा हो
मैं हर सहरा को छानूंगा, समंदर को खंगालूंगा

 दिखाऊंगा कि कैसे आस्मां  में छेद होता है
मैं एक पत्थर तबीयत से हवाओं में उछालूंगा .

मिलेगी कामयाबी हर कदम पर देखना गौतम
खुदा का  खौफ मैं जिस रोज भी दिल से निकालूंगा.

----देवेंद्र गौतम



शनिवार, 19 नवंबर 2011

अपनी-अपनी जिद पे अड़े थे

अपनी-अपनी जिद पे अड़े थे.
इसीलिए हम-मिल न सके थे.

एक अजायब घर था, जिसमें
कुछ अंधे थे, कुछ बहरे थे.


बुधवार, 9 नवंबर 2011

अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.

अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.
फिर घनी हो गयी जो रात थी ढलने वाली.

अपने अहसास को शोलों से बचाते क्यों हो
कागज़ी वक़्त की हर चीज है जलने वाली . 


शनिवार, 5 नवंबर 2011

बेबसी चारो तरफ फैली रही

बेबसी चारो तरफ फैली रही.
जिंदगी फिर भी सफ़र करती रही.

अब इसे खुलकर बिखरने दे जरा
रौशनी सदियों तलक सिमटी रही.

रात के अंतिम पहर पे देर तक
सुब्ह की पहली किरन हंसती रही.

बुधवार, 17 अगस्त 2011

हर लम्हा जो करीब था........

हर लम्हा जो करीब था वो बदगुमां मिला.
उजड़ा हुआ ख़ुलूस ही हरसू रवां मिला.

सर पे किसी भी साये की हसरत नहीं रही
मुझपे गिरा है टूट के जो आस्मां मिला.

सोमवार, 8 अगस्त 2011

जिसे खोया उसी को.....

(मित्रों ! यह  इस ब्लॉग की 100 वीं पोस्ट है. दो नज्मों और एक कत्ते को छोड़ दें तो अभी तक इसमें ज्यादातर ग़ज़लें ही पोस्ट की गयी हैं. भाई राजेंद्र स्वर्णकार के  इसरार पर जनवरी 2011 में  जब मैंने इस ब्लॉग पर नियमित पोस्ट  डालनी शुरू की तो उस वक़्त तक मात्र 289 पेज व्यूवर थे. सात महीने में आज यह  संख्या 6331 हो चुकी है. फोलोवर भी दूने से ज्यादा बढे हैं. आपलोगों के स्नेह की बदौलत ही यह संभव हुआ है. अब इसमें साहित्य की अन्य विधाओं  का भी समावेश किया जाना चाहिए या इसी रूप में आगे का सफ़र जारी रखना चाहिए इसपर विचार कर रहा हूं. मैं इसपर आपलोगों के विचार भी जानना चाहूंगा. )


जिसे खोया उसी को पा रहा हूं.
गुज़िश्ता वक़्त को दुहरा रहा हूं.

छुपाये दिल में अपनी तिश्नगी को 
समंदर की तरह लहरा रहा हूं.

सोमवार, 1 अगस्त 2011

हर वक़्त कोई रंग हवा में.......

हर वक़्त कोई रंग हवा में उछाल रख.
दुनिया के सामने युहीं अपना कमाल रख.

अपनी अकीदतों का जरा सा खयाल रख.
आना है मेरे दर पे तो सर पे रुमाल रख.

मैं डूबता हूं और उभरता हूं खुद-ब-खुद 
तू मेरी फिक्र छोड़ दे अपना खयाल रख.


रविवार, 24 जुलाई 2011

खुदी के हाथ से निकला........

खुदी के हाथ से निकला तो फिर हलाक हुआ.
कफे-गुरूर में हर शख्स जेरे-खाक हुआ.

हरेक तर्ह की आबो-हवा से गुजरा हूं
ये और बात तेरी रहगुजर में खाक हुआ.


शनिवार, 16 जुलाई 2011

इन्हीं सड़कों से रगबत थी......

इन्हीं सड़कों से रग़बत थी, इन्हीं गलियों में डेरा था.
यही वो शह्र है जिसमें कभी अपना बसेरा था.

सफ़र में हम जहां ठहरे तो पिछला वक़्त याद आया
यहां तारीकिये-शब है वहां रौशन सबेरा था.

वहां जलती मशालें भी कहां तक काम आ पातीं 
जहां हरसू खमोशी  थी, जहां हरसू अंधेरा था.

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

लाख हमसाये मिले हैं......


लाख हमसाये मिले हैं आईनों के दर्मियां.
अजनवी बनकर रहा हूं दोस्तों के दर्मियां.

काफिले ही काफिले थे हर तरफ फैले हुए
रास्ते ही रास्ते थे मंजिलों के दर्मियां.


शनिवार, 2 जुलाई 2011

खेल-तमाशे दिखा रहा है......

खेल-तमाशे दिखा रहा है यारब क्या.
हम धरती वालों से तुझको मतलब क्या.

कुछ परदे के पीछे है कुछ परदे पर 
उसे पता है दिखलाना है कब-कब क्या.

प्यार से जीना प्यार से मरना है प्यारे!
हम इन्सां हैं और इन्सां का मज़हब क्या.


शनिवार, 25 जून 2011

फिर उमीदों का नया दीप....

फिर उमीदों का नया दीप जला रक्खा  है.
हमने मिटटी के घरौंदे को सजा रक्खा  है.

खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है. 


रविवार, 19 जून 2011

ताजगी की इक इबारत.......

ताजगी की इक इबारत और क्या.   
मेरी बस इतनी सी चाहत और क्या.

बैठे-बैठे लिख रहा होगा खुदा
हम सभी लोगों की किस्मत और क्या.


मंगलवार, 14 जून 2011

हमें इस दौर के एक एक लम्हे से.....


हमें इस दौर के एक एक लम्हे से उलझना था.
मगर आखिर कभी तो एक न एक सांचे में ढलना था.

वहीं दोज़ख के शोलों में जलाकर राख कर देता
ख़ुशी का एक भी लम्हा अगर मुझको न देना था.


सिलसिला रुक जाये शायद.....

सिलसिला रुक जाये शायद आपसी तकरार का.
रुख अगर हम मोड़ दें बहती नदी की धार का.

जब तलक सर पे हमारे छत सियासत की रहेगी
टूटना मुमकिन नहीं होगा किसी दीवार का.

मार्क्स, गांधी, लोहिया, सुकरात, रूसो, काफ्का
सबपे भारी पड़ रहा है फलसफा बाज़ार का.


ज़मीं की खाक में......

ज़मीं की खाक में देखा गया है.
परिंदा जो बहुत ऊंचा उड़ा है.

हवा का काफिला ठहरा हुआ है.
फ़ज़ा के सर पे सन्नाटा जड़ा है.

मरासिम टूटने के बाद अक्सर
तआल्लुक और भी गहरा हुआ है.


रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.

रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.
अब तो हद से गुज़र रहे हैं हम.

एक छोटे से घर की हसरत में
मुद्दतों दर-ब-दर रहे हैं हम.


गुरुवार, 9 जून 2011

क्या ढोते बेकार के रिश्ते.

("OBO लाइव महा उत्सव" अंक ८...में प्रस्तुत)

तोड़ दिए संसार के रिश्ते. 
क्या ढोते बेकार के रिश्ते.

स्वर्ग-नर्क के बीच मिलेंगे 
इस पापी संसार के रिश्ते.

रोज तराजू में तुलते हैं
बस्ती और बाज़ार के रिश्ते.


शनिवार, 4 जून 2011

हवा में उड़ रहा है आशियाना

हवा में उड़ रहा है आशियाना.
परिंदे का नहीं कोई ठिकाना.

हमेशा चूक हो जाती है हमसे
सही लगता नहीं कोई निशाना.

अभी सहरा में लाना है समंदर
अभी पत्थर पे है सब्ज़ा उगाना.

जिसे आंखों ने देखा सच वही है
किसी की बात में बिल्कुल न आना.

मंगलवार, 31 मई 2011

जरा सी जिद ने इस आंगन का.......

(यह ग़ज़ल 28 से 30 मई तक openbooksonline.com पर आयोजित obo लाइव तरही मुशायरा, अंक-11 के लिए कही थी. तरह थी-'जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है.' काफिया-आ, रदीफ़-कराया है.)

समंदर और सुनामी का कभी रिश्ता कराया है?  
कभी सहरा ने गहराई का अंदाज़ा कराया है?

न जाने कौन है जिसने यहां बलवा कराया है.
हमारी मौत का खुद हमसे ही सौदा कराया है.

फकत इंसान का इंसान से झगड़ा कराया है.
बता देते हैं हम कि आपने क्या-क्या कराया है. 


मंगलवार, 24 मई 2011

डूबने वाले को......

डूबने वाले को तिनके के सहारे थे बहुत.
एक दरिया था यहां जिसके किनारे थे बहुत.

एक तारा मैं भी रख लेता तो क्या जाता तेरा
आस्मां वाले तेरे दामन में तारे थे बहुत.

वक़्त की दीवार से इक रोज  रुखसत हो गयी
हमने जिस तसवीर के सदके उतारे थे बहुत.


मंगलवार, 17 मई 2011

कहीं सूरज, कहीं जुगनू का......

कहीं सूरज, कहीं जुगनू का अलम रख देना.
अंधेरे घर में उजाले का भरम रख देना.

बैठकर सुर्खियां गढ़ने से भला  क्या हासिल
झूठ लिखने से तो बेहतर है कलम रख देना.


मंगलवार, 10 मई 2011

हिसारे-जां में सिमटा हूं मैं अब......

हिसारे-जां में सिमटा हूं मैं अब सबसे जुदा होकर.
दिशाएं दूर बैठी हैं बहुत मुझसे खफा होकर.

ये मेरी वज्जादारी है निभा लेता हूं रिश्ते को 
वगर्ना क्या करोगे तुम भला मुझसे खफा होकर.


मंगलवार, 3 मई 2011

पुरानी नस्लों से.......

सुर्ख और ज़र्द लम्हों की कश्मकश ने 
जब-जब 
तुम्हारे वजूद की ऊंची इमारत  को 
बेरब्त खंडरों में तब्दील किया 
और जब-जब
तुम्हारे चेहरे पर 
आड़ी-तिरछी रेखाओं की सल्तनत कायम हुई 
तुम हमारे करीब आये....

तुम हमारे करीब आये
और 
अपने कांपते हुए हाथों से 
एक बोसीदा सी गठरी 
हमारे कंधों पर रखकर 
मुतमईन हो गए....


तुमने कहा-
इसमें वो लालो-गुहर हैं 
जिनकी रौशनी 
अबतक हमारी रहनुमाई करती आई है 
अब....अब तुम्हारे काम आएगी....

सदियां गुज़र गयीं......
हम-तुम 
न जाने कितनी बार मिले 
और...न जाने कितनी बार हमने 
तुम्हारे हुक्म की तामील की.

लेकिन धीरे-धीरे....
तुम्हारे लालो-गुहर 
तुम्हारे हीरे-जवाहरात 
खुरदुरे पत्थरों की शक्ल अख्तियार करने लगे
और हर पत्थर पे सब्त होती गयी
गुलामी की एक लंबी सी दास्तां....
अब तो...
इस बोसीदा गठरी से 
बदबू भी आने लगी है.

इसीलिए इसबार हमने   
अपने हाथों में उठा ली है             
एक जलती हुई मशाल  
और इसी मशाल की रौशनी के सहारे हमने 
अंधेरों की तिलस्मी सियासत के खिलाफ 
बगावत का नारा बुलंद किया है.

मुमकिन हो तो तुम भी 
पुरानी अजमतों के बोझ को  ताक पर रख दो 
और हमारी मशाल की रौशनी के लिए
अपना लहू दो......
अपना..... लहू..... दो....!

----देवेन्द्र गौतम 

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

ज़रूरत हर किसी की.....

ज़रूरत हर किसी की हर किसी के सामने लाना.
नदी सूखे तो दरिया को नदी के सामने लाना.

अंधेरे और उजाले का खुले कुछ भेद हमपर भी 
अगर नेकी मिले तुमको बदी के सामने लाना.


गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

ज़मीं बदली, फलक बदला.....

"ज़मीं बदली, फलक बदला, निज़ामे-दो-जहां  बदला".
मगर जिसको बदलना था अभी तक वो कहां बदला.

गली बदली, नगर बदला, मकीं बदले, मकां बदला.
बस इक लम्हे की करवट से शबिस्ताने-जहां बदला.

वही लहजा पुराना सा, वही आदम, वही हव्वा 
न अपनी दास्तां बदली, न अंदाज़े-बयां बदला.


रविवार, 17 अप्रैल 2011

अजीब ख्वाहिशों का ज़लज़ला है....

अजीब ख्वाहिशों का ज़लज़ला है घर-घर में.
किसी के पांव सिमटते नहीं हैं चादर में.

मैं ऐसा अब्र के जो आजतक भटकता हूं
वो एक नदी थी के जो मिल गयी समंदर में.


शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

ख्वाबों की धुंध में अभी.......

ख्वाबों की धुंध में अभी रूपोश हैं सभी.
आंखें खुली हुई हैं प बेहोश हैं सभी.

तेरे असर से चार-सू रहता था शोरगुल
टूटा तेरा तिलिस्म तो खामोश हैं सभी.


सोमवार, 11 अप्रैल 2011

दिलों में तैरती कागज़ की नाव.....

दिलों में तैरती कागज़ की नाव तो देखो. 
नदी तो देखो, नदी का बहाव तो देखो.

मैं कौन हूं मेरे नज़दीक आओ तो देखो.
तुम अपने आप को मुझमें छुपाओ तो देखो.

ज़मीन पांव तले है न आस्मां सर पर
नज़र की धुंध को लेकिन हटाओ तो देखो. 


शनिवार, 9 अप्रैल 2011

एक कत्ता

(जंतर-मंतर के नाम)

दो कदम पीछे हटे हैं वो अभी 
एक कदम आगे निकलने के लिए.
ये सियासत का ही एक अंदाज़ है 
झुक गए हैं और तनने के लिए.

-----देवेंद्र गौतम 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

ज़मीं से दूर..बहुत दूर....

ज़मीं से दूर..बहुत दूर..आसमान में है.
मेरे जुनूं का परिंदा अभी उड़ान में है.

कहां से लायें अंधेरों से जूझने का रसूख
हमारे वक़्त का सूरज अभी ढलान में है.


वटवृक्ष: गज़ल

रश्मि प्रभा जी ने गज़लगंगा की एक ग़ज़ल अपने चर्चित ब्लॉग  वटवृक्ष में पोस्ट की. उन्हें हार्दिक धन्यवाद! उनका ब्लॉग देखने के लिए नीचे क्लिक करें--

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

दर्दो-गम का इक समंदर.....

दर्दो-गम का इक समंदर रख लिया है.
हमने अपने दिल पे पत्थर रख लिया है.

चैन की इक सांस के बदले में हमने
अपने अंदर इक बवंडर रख लिया है.

अजमतों का बोझ कांधे से हटाकर
हमने अपने सर के ऊपर रख लिया है.


रविवार, 3 अप्रैल 2011

कुछ दुधमुही ग़ज़लें

 (आज किताबों की आलमारी में एक पुरानी डायरी मिली जिसमें मेरी शुरूआती दौर की ग़ज़लें हैं. 1975 -76 के ज़माने की. जब मैंने आरा की निशिस्तों में शिरक़त करनी शुरू की थी. कुछ रवायती मेज़ाज़ की कुछ ज़दीदियत की ओर रुख करती हुई.... दुधमुही सी....आपके साथ शेयर कर रहा हूं मुलाहिजा फरमाएं )

--देवेन्द्र गौतम 

(1)
जिगर कहना जिन्हें मुश्किल वो पत्थर याद आते हैं.
गुज़िश्ता दौर के मुझको सितमगर याद आते हैं.

निगाहें खुश्क होती हैं, जिगर रह-रह तड़पता है 
शबे-फुरक़त की घड़ियों में सितमगर याद आते हैं.

ये मदहोशी भी ए साक़ी! क़यामत बन के छाई है 
भुलाया होश में जिनको वो पीकर याद आते हैं.

(2)

(दायरे-अदबिया की जानिब से तरही मुशायरे में पढ़ी गयी ग़ज़ल. तरह थी.."रहनुमा पर भी गुमाने-रहनुमा होता नहीं").

दिल हमारा अब कभी महवे-गिला होता नहीं.
दर्द जब हद से बढे उसका पता होता नहीं.

पोख्तातर वो दिल नहीं जो गम के शोलों से बचे
तप न जाये जब तलक सोना खरा होता नहीं.


धडकनों का ज़लज़ला है, हर नफ़स तूफ़ान है
इस जुदाई की घडी में क्या से क्या होता नहीं.

जल रहा था जिस्म लेकिन दिल तड़पता ही रहा
मौत पर भी साजे-हस्ती बेसदा होता नहीं.

मस्त आंखों से कोई सहबा पिला देता जरा
मुद्दतों फिर आतिशे-गम का पता होता नहीं.

रह्ज़नों के काफिले इतने मिले हैं राह में
"रहनुमा पर भी गुमाने-रहनुमा होता नहीं."

(3 )

लज्ज़तों की धूप फैले वो फुगां पैदा करो.
इस जहां से खूबसूरत इक जहां पैदा करो.

आस्मां के ज़न्नतो-दोजख से क्या मतलब तुम्हे
अपनी काली धरती पर ही कहकशां पैदा करो.

एक बुलबुल की सदायें महवे-गुल थीं दर्द में
अब खिजां से दूर कोई गुलसितां पैदा करो.

अब नकुशे-कारवां की जुस्तजू है रायगां 
कारवां जिसपर चले तुम वो निशां पैदा करो.  

(4 )

ख़ुशी की सुब्ह भी मायूसियों की शाम हो जाये.
कहीं ये दिल न वक्फे-गर्दिशे-अय्याम हो जाये.

हयाते-मुख़्तसर के नाम पर वादा न कर हमदम 
न जाने कब हमारी जिंदगी की शाम हो जाये.

अगर इंसान में इंसानियत की बू नहीं आती
तो हर तारे-नफ़स दौरे-हवस का दाम हो जाये.

तेरी उल्फत का किस्सा मैं सितारों को सुनाऊंगा
ज़मीं की बात का चर्चा फलक पर आम हो जाये.

चले आते हैं हज़रत शेख कर दो बंद दरवाज़ा
कहीं ऐसा न हो ये मैक़दा बदनाम हो जाये.

(5 ) 

ये सुब्हो-शाम के जो ज़र्द साये जाते हैं.
हमारी उम्र की दौलत चुराये जाते हैं.

किस की शक्ल को पहचानता नहीं कोई
तमाम लोग नकाबों में पाये जाते हैं.

सुना भी जाओ तबाही की दास्तां अपनी 
के दोस्तों से कहीं गम छुपाये जाते हैं.

तुम्हारी और नज़र आइनों की फिरती है
हजारों अक्स जहां जगमगाए जाते हैं.

वो जिनके प्यार में ख्वाबों के बन गए थे महल
उचटती नींद के आंगन में पाये जाते हैं.

ये कागजी हैं भला किसके काम आयेंगे
जो फूल अहले-सियासत खिलाये जाते हैं.

मसर्रतों की कहीं धूप अब नहीं मिलती
ग़मों के साये मेरे सर पे छाये जाते हैं.

(6 )

तस्वीरे-वफ़ा हल्की ही सही आंखों में कोई झलका जाये.
फिर दिल की सूनी वादी में जज्बों का कुहासा छा जाये.

मैं उसको याद भी आऊं तो दुल्हन की तरह शरमा जाये.
तन्हाई के सूने कमरे में वो पर्दानशीं बल खा जाये.

बरसात की भीगी रात में जब यादों की खुशबू छा जाये.
ख्वाबों के सुनहरे बिस्तर पर मखमल सा बदन लहरा जाये.

माना कि गुनाहों के नभ पर हम तुम दो प्यासे बादल हैं
मिलकर गरजें, बरसें चमकें, मुमकिन है कि सावन आ जाये.

मैं यूं तो ग़मों  की चादर में मुद्दत से लेटा हूं लेकिन 
खुशियों की परी आये तो कभी और मेरी नींद उड़ा जाये. 

किस हुस्न में इतनी ताक़त है के मुझको मुझसे अलग कर दे
मुमकिन है के ऐसे किस्सों पे हंसने का ज़माना आ जाये.

(7)

भटक रहा है अभी रोजो-शब सुखन मेरा.
अभी से क्या कहूं किससे जुड़ा है फन मेरा.

मेरे जुनूं का खिलौना बना है मन मेरा.
अभी तलक है मेरे साथ बालपन मेरा .

हमेशा आतिशे-गम को पनाह देता है
मेरा रफीक है जलता हुआ बदन मेरा.

शिकस्ता शाखों से उभरेगा एक हरा मौसम
इसी उमीद पे उजड़ा रहा चमन मेरा.

किसी पहाड़ की मानिंद महवे-ख्वाब हूं मैं
के सर्द जज्बों का कुहरा है इल्मो-फन मेरा.

ज़मीं पे आदमो-हव्वा की कौम रहती है
मुझे पुकार रहा है अभी वतन मेरा.

मुझे खबर नहीं गौतम के इस ज़माने में
कहां छुपा है सितारों भरा गगन मेरा.

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

कभी फलक, कभी उड़ते हुए.....

कभी फलक, कभी उड़ते हुए परिंदे सी.
ख़ुशी मिली है मुझे बारहा न मिलने सी.

शज़र का क्या है के पत्ते भी हिल नहीं पाए 
हवा चली थी किसी परकटे परिंदे सी. 


गुरुवार, 31 मार्च 2011

अपने जैसों की मेजबानी में

अपने जैसों की मेजबानी में.
लुत्फ़ आता है लामकानी में.


हर सुखनवर है अब रवानी में.
कुछ नई बात है कहानी में.


उसने सदियों की दास्तां कह दी
एक लम्हे की बेज़ुबानी में.



ख्वाहिशों के जिस्मो-जां की.....

(यह ग़ज़ल 1979  में कही थी. हिंदी और उर्दू की कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी और आकाशवाणी पटना से कलामे-शायर के तहत  इसका प्रसारण भी हुआ था.)

ख्वाहिशों के जिस्मो-जां की बेलिबासी देख ले. 
काश! वो आकर कभी मेरी उदासी देख ले.  

कल मेरे अहसास की जिंदादिली भी देखना
आज तो मेरे जुनूं की बदहवासी देख ले.

हर तरफ फैला हुआ है गर्मपोशी का हिसार 
वक़्त के ठिठुरे बदन की कमलिबासी देख ले.

आस्मां से बादलों के काफिले रुखसत हुए
फिर ज़मीं पे रह गयी हर चीज़ प्यासी देख ले.

और क्या इस शहर में है देखने के वास्ते
जा-ब-जा बिखरे हुए मंज़र सियासी देख ले.

वहशतों की खाक है चारो तरफ फैली हुई 
आदमी अबतक है जंगल का निवासी देख ले.

एक नई तहजीब उभरेगी इसी माहौल से
लोग कहते हैं कि गौतम सन उनासी देख ले.   


---देवेंद्र गौतम 

बुधवार, 30 मार्च 2011

धुंध में गुम एक लंबे खौफ के.....

धुंध में गुम एक लंबे खौफ के पहरे में था.
उम्र भर मैं गर्दिशे-हालात के कमरे में था.

कांपते थे पांव और आंखें भी थीं सहमी हुईं 
हर कदम पर वो किसी अनजान से खतरे में था. 

ढूंढती फिरती थी दुनिया हर बड़े बाज़ार में  
वो गुहर आंखों से पोशीदा किसी कचरे में था.

मुन्तजिर जिसके लिए दिल में कई अरमान थे
उम्र भर वो तल्खिये-हालात के कुहरे में था.

गौर से देखा तो आंखें बंद कर लेनी पड़ीं
गम का एक सैलाब सा हंसते हुए चेहरे में था.
-----देवेंद्र गौतम 


शुक्रवार, 25 मार्च 2011

गिर्दाबे-खौफ दिल की नदी से......

गिर्दाबे-खौफ दिल की नदी से हटा दिया.
जज़्बों की कश्तियों को किनारे लगा दिया.


गुमराह जिंदगी ने मुझे और क्या दिया.
खुद ही मिली न मुझको ही मेरा पता दिया.



मुझको मेरी अना से भी ऊंचा उठा दिया.
फिर तीरे-तंज़ आपने मुझपर चला दिया.


ऐ अब्रे-बेमिसाल नवाजिश का शुक्रिया!
दिल पे ग़मो का तूने जो कुहरा घना दिया.


मैंने तो चंद रंग  बिखेरे थे प्यार में
तुमने उन्हें तिलिस्मे-तमाशा बना दिया.


पूछा जो जिंदगी की हकीकत तो चुप रहे
इक मुश्ते खाक लेके हवा में उड़ा दिया.


अब उम्रभर भटकना है ग़ज़लों के दश्त  में
तुमने ग़ज़ब किया मुझे शायर बना दिया.


जिस आईने ने रोज सवांरा बहुत उन्हें
उसको उन्हीं के अक्स ने धुंधला बना दिया.


----देवेंद्र गौतम


सोमवार, 21 मार्च 2011

हर लम्हा टूटती हुई......

हर लम्हा टूटती हुई मुफलिस की आस हो.
क्या सानेहा हुआ है कि इतने उदास हो.

सच-सच कहो कि ख्वाब में डर तो नहीं गए
आंखें बुझी-बुझी सी हैं कुछ बदहवास हो. 

सीने में ख्वाहिशों का समंदर है मौजज़न 
तुम फिर भी रेगजारे-तमन्ना की प्यास हो.

बाहर चलो के लज्ज़तें बिखरी हैं चार-सू
मौसम तो खुशगवार है तुम क्यों उदास हो.

वो दिन गए कि तुमसे मुनव्वर थे मैक़दे 
अब तुम सियाह वक़्त का खाली गिलास हो. 

जिस पैरहन में आबरू रक्खी थी चाक है 
यानी हिसारे-वक़्त में तुम बेलिबास हो.

गौतम ग़मों की धूप से कोई गिला न कर
शायद ख़ुशी के बाब का ये इक्तेबास हो.


----देवेंद्र गौतम  

गुरुवार, 17 मार्च 2011

सहने-दिल में.....

सहने-दिल में दर्दो-गम की खुशनुमा काई कहां.
अब हमारे पास जज्बों की वो गहराई कहां.


हर तरफ बे-रह-रवी है, हर तरफ है शोरो-गुल
इस शिकस्ता शहर में मिलती है तन्हाई कहां.


कोई अपना हो तो खुद आकर के मिल जाये के अब
अजनवी लोगों में हम ढूंढें शनासाई कहां.


सामने सबकुछ है लेकिन कुछ नज़र आता नहीं
बेखयाली ले गयी आंखों से बीनाई कहां.


रात गहरी हो चुकी तो हू का आलम तोड़कर
फिर ख़यालों में मेरे बजती  है शहनाई कहां.


हर कदम पे मौत की तारीकियां हैं मौजज़न
जिन्दगी आखिर मुझे अबके उठा लाई कहां.


लोग चाहे कुछ कहें लेकिन हकीकत है यही
खुद्फरेबी है अभी हम सब में सच्चाई कहां.


---देवेंद्र गौतम

रविवार, 13 मार्च 2011

ये और बात के लफ़्ज़ों की.....

ये और बात के लफ़्ज़ों की बेहिजाबी थी.
मेरे लबों प तो जो बात थी किताबी थी.


तबाह कर दिया मौसम की  ज़र्दपोशी ने
हमारे शहर की रंगत कभी गुलाबी थी.


तमाम जिस्म थे मलबूसे-जां समेटे हुए
हमारी आंखों के सहरा में बेहिजाबी थी.


मैं हर्फ़-हर्फ़ था बिखरा हुआ वरक-ब-वरक
के मेरे अहद की तकदीर ही किताबी थी.


शिकस्त खाता हूं हर लम्हा अब, मगर पहले
कदम-कदम प मेरे साथ कामयाबी थी.


बुझा-बुझा था मैं बेकैफ मौसमों की तरह
हरेक सम्त की आबो-हवा शराबी थी.


मुझे किसी की शराफत प शक न था गौतम
मैं जानता हूं के मुझमें ही कुछ खराबी थी.


---देवेंद्र गौतम

शनिवार, 12 मार्च 2011

अब अपने आप को पतझड़ न दे......

अब अपने आप को पतझड़ न दे बहार न दे.
जुदाई सख्त हो, इतना किसी को प्यार न दे.


करीब आके मेरे दिल को बेक़रार न कर
उतर न पाए जो आंखों में वो खुमार न दे.

ग़मों के कर्ब से कैसे निजात पाए वो
जो अपनी शक्ल पे खुशियों का इश्तेहार न दे.


फरेब खा के भी इन खुदपरस्त लोगों को
कभी भी अपनी सदाकत का ऐतबार न दे.


मैं फूल हूं प ये कितना अजीब मौसम है
के मुझको शाख पे खिलने का इख़्तियार न दे.


मैं अपनी जिंदगी तन्हा गुज़ार सकता हूं
कदम-कदम प मुझे कोई गमगुसार न दे.


मैं बुझती शम्मा हूं हर लम्हा खौफ है मुझको
वो अपने ताके-नज़र से कहीं उतार न दे.


मैं अपने दौर का गर्दो-गुबार हूं गौतम
बिखर ही जाऊंगा अब और इंतेशार न दे.


----देवेंद्र गौतम

गुरुवार, 10 मार्च 2011

ग़मों के मोड़ पे वो बेक़रार.......

ग़मों के मोड़ पे वो बेक़रार था कितना.
किसी ख़ुशी का उसे इंतजार था कितना.


जो अपने आपको बागी करार देते थे
उन्हीं के सर पे रिवाजों का भार था कितना.


दिलों से दर्द के कांटे समेट लेता था
हरेक शख्स का वो गमगुसार था कितना.


यकीन टूट के बिखरा तो शर्मसार हुए
के हमको वहम प ही ऐतबार था कितना.


कफे-सुकूत से जो मुद्दतों निकल न सकी
उसी जबां पे मुझे ऐतबार था कितना.


शिकस्ता जां को रकाबत की आंच देता था
उसे भी अपने रफीकों से प्यार था कितना.


हवाए-कुर्ब से पाकीजगी बिखर न सकी
मेरी हवस पे तेरा अख्तियार था कितना.


हवा-ए-तुंद  का दामन भी भर गया गौतम
हमारे-ज़ेहन में अबके गुबार था कितना.


----देवेंद्र गौतम

सोमवार, 7 मार्च 2011

देखना ढह जायेंगे बेरब्त टीले.....

देखना ढह जायेंगे बेरब्त टीले खुद-ब-खुद.
फिर सिमट जायेंगे सब बिखरे कबीले खुद-ब-खुद.


कुछ करम मेरे जुनूं का, कुछ नवाज़िश आपकी
हो गए ज़ज़्बात के  पैकर लचीले खुद-ब-खुद.


आपकी चाहत के बादल खुल के बरसे भी नहीं
ख्वाहिशों के हो गए पौधे सजीले खुद-ब-खुद.


इक जरा छलकी ही थी खुशरंग मौसम की शराब
तह-ब-तह खुलने लगे मंज़र नशीले खुद-ब-खुद.


तल्खिए-हालत से आंखें मेरी पथरा गयीं
अब तेरी यादों के होंगे जिस्म नीले खुद-ब-खुद.


बात क्या कहनी थी गौतम क्या लबों ने कह दिया
हो गए अल्फाज़ के पैकर नुकीले खुद-ब-खुद.


-----देवेंद्र गौतम

शनिवार, 5 मार्च 2011

मेरी छत पर देर तक.....

मेरी छत पर देर तक बैठा रहा.
इक कबूतर खौफ में डूबा हुआ.


हमने दरिया से किनारा कर लिया.
अब कोई कश्ती न कोई नाखुदा.


झूट के पहलू में हम बैठे हुए
सुन रहे हैं सत्यनारायण कथा.


देर तक बाहर न रहिये, आजकल
शह्र का माहौल है बदला हुआ.


ऐसी तनहाई कभी देखी न थी
इतना सन्नाटा कभी छाया न था.


पांचतारा जिंदगी जीते हैं वो
आमलोगों से उन्हें क्या वास्ता.


ख्वाब में जो बन गए थे दफअतन
पूछ मत अब उन घरौंदों का पता.


इक न इक खिड़की किसी ने खोल दी
बंद जब हर एक दरवाज़ा हुआ.  


-----देवेन्द्र गौतम

गुरुवार, 3 मार्च 2011

आसमान निहारती बिटिया........

रोज़ रात को सितारों के बीच अपनी मम्मी को ढूँढती है बिटिया
एक आंटी ने बताया था-तारा बन गयी है
उसकी मम्मी.......
इसीलिए हर रात को
आसमान निहारती हर तारे में मम्मी को तलाशती है बिटिया.

कभी अनजान लगता है हर तारा
कभी हर तारे से झांकता है मम्मी का ममता भरा चेहरा
 जैसे पूछ रही हो-
 आज क्या पढा....?
होमवर्क पूरा किया...?
फिर जवाब सुने बिना ही गायब हो जाती है मम्मी.

जब आसमान में छाते हैं बादल....
उदास हो जाती है बिटिया
अब कहाँ तलाशे मम्मी का चेहरा.

सबकी नज़रें बचाकर
अपने खाने का थोडा हिस्सा
आग में डाल आती है बिटिया
हवन करते पंडित अंकल ने कहा था-
अग्नि में जिसके नाम से डाला जाता है भोजन
धुआं बनकर पहुँच जाता है उसके पास.

बिटिया जानती है....क्या-क्या खाना पसंद करती थी मम्मी
और डाक्टर अंकल ने क्या खाने से मना कर रखा था
अब वह... वह सबकुछ खिलाना चाहती है मम्मी को
जो चाहकर भी नहीं खा पाती थी.
बिटिया जानती है.....
मम्मी तारा बन गयी है और तारों को न सुगर होता है
न किडनी की बीमारी .

रोज़ मम्मी के नाम एक चिट्ठी लिखकर आग में जला देती है बिटिया
आग की लपटें खाना पहुंचा सकती हैं तो चिट्ठी भी पहुंचा देंगी
 जलाई हुई चिट्ठियों की राख एक डब्बे में संजोकर रखती है बिटिया
ताकि कभी वापस लौट आये मम्मी
तो दिखलाये के कितनी चिट्ठियां लिखी थीं......
कितना याद करती थी उसे....

बिचारी बिटिया नहीं जानती.....

कोई चिट्ठी नहीं पहुंचेगी मम्मी के पास
और उसकी मम्मी....
किसी तारे में नहीं
उसके दिल में...
दिल की धडकनों में है

-----देवेन्द्र गौतम.




अजमते-अहले-जुनूं की.....

अजमते-अहले-जुनूं की पायेदारी के लिए!
एक हम ही रह गए तजलीलो-ख्वारी के लिए!


जाने कब आंधी उठे इन पत्थरों के शह्र में
शीशा-शीशा मुन्तज़र है संगबारी के लिए.


अब किसी खिड़की पे कोई चांद सा चेहरा नहीं
चिलचिलाती धूप है मंज़र-निगारी के लिए.


फिर मेरे अहसास के आंगन में वो नंगे हुए
जो कहा करते थे सबसे पर्दादारी के लिए.


जब कभी अपनी हदों को तोड़कर निकला हूं मैं
कुछ बहाने मिल गए हैं उस्तवारी के लिए.


एक चौराहे पे कबसे चुप खड़ी है ये सदी
एक लम्हे की तलब है बेकरारी के लिए.


आज फिर गौतम ख़ुशी के अब्र हैं छाये हुए
और आंखें सर-ब-सर हैं अश्कबारी के लिए.


-----देवेंद्र गौतम

बुधवार, 2 मार्च 2011

उजड़े हुए खुलूस का.....

उजड़े हुए खुलूस का मंज़र करीब है.
यानी अब इस जगह से मेरा घर करीब है.


जिन हादसों ने मोम को पत्थर बना दिया
उन हादसों की आंच मुक़र्रर करीब है.


लिपटी हुई हैं बर्फ की चादर में ख्वाहिशें
शायद दहकते जिस्म का बिस्तर करीब है.


हालांकि कुर्बतों का कोई सिलसिला नहीं
इक शख्स है कि दूर भी रहकर करीब है.


अब रेज़ा-रेज़ा हो चुकीं परछाइयां तमाम
यानी बरहना धूप का खंज़र करीब है.


अब मेरे चारो ओर है मायूसियों का जाल
सहरा करीब है.. न समंदर करीब है.


आईन-ए-यकीन को गौतम बचा के रख
वहमो-गुमां का सरफिरा पत्थर करीब है.


----देवेन्द्र गौतम

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

दरो-दीवार पे अब.....

दरो-दीवार पे अब कोई इबारत न रही.
जिसकी तामीर हुई थी वो इमारत  न रही.


दिल के रिश्ते न रहे, दर्द की हिक़मत न रही.
अब यहां मिलने-मिलाने की रवायत न रही.


इक बयाबां मेरे अंदर ही सिमट आया है
अब कहीं दूर भटकने की ज़रुरत न रही.


जबसे हासिल हुआ गुमगश्ता ठिकानों का पता
अपने हाथों की लकीरों से शिकायत न रही.


वही अशआर तो तारीख़ में रौशन होंगे
जिनसे लिपटी हुई जंजीरे-रवायत न रही.


ये कोई जिंस नहीं जिसके खरीदार मिलें
आज बाज़ार में अहसास की कीमत न रही.


.जबसे निकला हूं रेफाक़त के खंडर से गौतम
अब मुझे अपने रफ़ीक़ों की ज़रूरत न रही.


----देवेन्द्र गौतम

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

हरेक लफ्ज़ में नौहा है.....

हरेक लफ्ज़ में नौहा है बेज़ुबानी का.
कहां से लाओगे उन्वां मेरी कहानी का.

बहुत असर हुआ पौधों की बेज़ुबानी का.
के राज़ खुल गया मौसम की हुक्मरानी का.

तुम्हें भी हर कोई खाना-बदोश कहता है
हमारे सर पे भी साया है लामकानी का.

खुली जब आंख तो बिखरी थी धूप चारो तरफ
अजीब रंग था ख्वाबों की सायबानी का.

न हमको तल्खि-ये-इमरोज़ से शिकायत है
न इंतज़ार है फर्दा की गुलफिशानी का.

ज़बां से गर्द बिखरने लगे तो चुप रहना
के इसके बाद तो आलम है बदजुबानी का.

बहुत गुरूर था अपने वजूद पर हमको
वजूद क्या था बस इक बुलबुला था पानी का.

ख़ुदा ने जिनको अता की  हैं रहमतें गौतम
उन्हें भी खौफ नहीं कहरे-आसमानी का.


-----देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

ख्वाहिशों का इक छलकता......

ख्वाहिशों का इक छलकता जाम था.
इक परी थी और इक गुलफाम था.


हर वरक पर भीड़ थी, कोहराम था
हाशिये में चैन था, आराम था.


हर अंधेरे घर में उसका काम था.
उसके अन्दर रौशनी का जाम था.


धीरे-धीरे हिल रही थीं पुतलियां
उसकी आँखों में कोई पैगाम था.


जिसने मिट्टी में मिला डाला मुझे
दिल का सरमाया उसी के नाम था.


आज उसका नाम सबके लब पे है
कल तलक वो आदमी गुमनाम था.


मुझको उसकी और उसे मेरी तलब
मैं भी प्यासा वो भी तश्नाकाम था.


हर फ़रिश्ते पर उठी है उंगलियां
क्या हुआ गर मैं भी कुछ बदनाम था.


------देवेंद्र गौतम

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

ढलती हुई यादों के दरो-बाम.....

ढलती हुई यादों के दरो-बाम लिखेंगे.
हर सम्त अँधेरे में तेरा नाम लिखेंगे.

यादों के गुलिस्तां में तसव्वुर के कलम से
सरसब्ज़ दरख्तों पे तेरा नाम लिखेंगे.


हर मोड़ पे हालात के तारीक वरक़ पर
जो कुछ भी कहे गर्दिशे-अय्याम लिखेंगे.


आंखों में अभी खौफ ज़माने का बहुत है
सीने में लरजते हुए पैगाम लिखेंगे.


जब सर पे मेरे ग़म की कड़ी धूप चढ़ेगी
ढलते हुए सूरज का हम अंजाम लिखेंगे.


रातों को अगर नींद न आये तो उसे हम
उजड़े हुए ख्वाबों की घनी शाम लिखेंगे.


जिस प्यार ने जीने का सलीका हमें बख्शा
उस प्यार के गीतों को सरे-आम लिखेंगे.


इस बार ख्यालों के जुनूंखेज़ वरक पर
हम अक्ल से मांगे हुए इल्जाम लिखेंगे.


फिर वक़्त का तारीक  वरक़ चमकेगा गौतम
इस सुब्ह को भी लोग सियहफाम लिखेंगे.


-----देवेंद्र गौतम

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

ज़ख्म यादों का......

ज़ख्म यादों का फिर हरा होगा.
अबके सावन में और क्या होगा.


जो जहां है वहीं रुका होगा.
और आगे की सोचता होगा.


मेरे ग़म से भी आशना होगा.
गर हकीकत में वो खुदा होगा.


खुदपरस्ती बहुत ज़रूरी है
अपने बारे में सोचना होगा.


धूप मुझमें समा गयी होगी
आज सूरज नहीं ढला होगा.


एक सहरा है, एक समंदर है
आज दोनों का सामना होगा.


मेरे कहने में, तेरे सुनने में
चंद लफ़्ज़ों का फासला होगा.


कौन मुन्सिफ है, कौन मुजरिम है
आज..और आज फैसला होगा.


चाहे जैसा भी जाल हो गौतम
बच निकलने का रास्ता होगा.


--देवेंद्र गौतम

आंच शोले में नहीं.......

आंच शोले में नहीं, लह्र भी पानी में नहीं.
और तबीयत भी मेरी आज रवानी में नहीं.


काफिला उम्र का समझो कि रवानी में नहीं.
कुछ हसीं ख्वाब अगर चश्मे-जवानी में नहीं.


खुश्क होने लगे चाहत के सजीले पौधे
और खुशबू भी किसी रात की रानी में नहीं.


दिल को बहलाने क़ी हल्की सी एक कोशिश है
और कुछ भी मेरी रंगीन-बयानी में नहीं.


धुंद में खो गए माजी के कबीले गौतम
और तेरा अक्स भी अब तेरी निशानी में नहीं.


------देवेन्द्र गौतम

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मुख्तलिफ रंगों का इक सैले -रवां.......

मुख्तलिफ रंगों का इक सैले -रवां काबू में था.
इक अज़ब खुशरंग सा साया मेरे पहलू में  था.


कुछ नहीं तो इन अंधेरों से झगड़ लेता जरा
जोर इतना कब किसी सहमे हुए जुगनू में था.


कल न जाने कौन सी मंजिल पे जा पहुंचा था मैं
जिंदगी के हाथ में या मौत के पहलू में था.


एक झोंके में कई चेहरे बरहना हो गए
राज़ किस-किस का निहां उस फूल की खुशबू में था.


खामुशी हर बोल पे पहरों बिखरती ही गयी
रक्स का सारा मज़ा बजते हुए घुंघरू में था.


छोड़कर जाता कहां मुझको वो हमसाया मेरा
शोरो-हंगामा से निकला तो सदाए-हू में था.


बस कि गौतम अब मुझे कुछ याद आता ही नहीं
कौन था वो शख्स जो बरसों मेरे पहलू में था.


------देवेन्द्र गौतम

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

सहने दिल में..........

सहने-दिल में जुल्मते-शब की निशानी भी नहीं.
चांदनी रातों की हमपे मेहरबानी भी नहीं.

ढूंढता हूं धुंद में बिखरे हुए चेहरों को मैं
यूं किसी सूरज पे अपनी हुक्मरानी भी नहीं.

ताके-हर-अहसास पर पहुंचा करे शामो-सहर
खौफ की बिल्ली अभी इतनी सयानी भी नहीं.

किस्सा-ए-पुरकैफ का रंगीन लहजा जा चुका
अब किताबे-ज़ीस्त में सादा-बयानी भी नहीं.

याद भी आती नहीं पिछले ज़माने की हमें
और मेरे होठों पे अब कोई कहानी भी नहीं.

कल तलक सारे जहां की दास्तां कहता था मैं
आज तो होठों पे खुद अपनी कहानी भी नहीं.

कोशिशे-परवाज़ की गौतम हकीकत क्या कहें
आजकल अपने परों में नातवानी भी नहीं.


----देवेन्द्र गौतम

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

रहगुज़र नक़्शे-कफे-पा से........

रहगुज़र नक़्शे-कफे-पा से तही रह जाएगी.
जिंदगी फिर जिंदगी को ढूंढती रह जाएगी.

मैं चला जाऊंगा अपनी प्यास होटों पर लिए
मुद्दतों दरिया में लेकिन खलबली रह जाएगी.

झिलमिलाती साअतों की रहगुज़र पे मुद्दतों
रौशनी शाम-ओ-सहर की कांपती रह जाएगी.

दिन के आंगन में सजीली धूप रौशन हो न हो
रात के दर पर शिकस्ता चांदनी रह जाएगी.

रौशनी की बारिशें हर सम्त से होंगी मगर
मेरी आँखों में फ़रोज़ां तीरगी रह जाएगी.

लम्हा-लम्हा रायगां  होते रहेंगे रोजो-शब
इस सफ़र में मेरे पीछे इक सदी रह जाएगी.

चाहे जितनी नेमतें हमपे बरस जाएं  मगर
जिंदगी में फिर भी गौतम कुछ कमी रह जाएगी.

-----देवेन्द्र गौतम

हरेक लम्हा लहू में फसाद.......

हरेक लम्हा लहू में फसाद जारी था.
अजीब खौफ मेरे जिस्मो-जां पे तारी था.


तुम्हारी राह में हरसू सुकूं के साये थे
हमारी राह में सहरा-ए-बेकरारी था.


हवा में डूब के देखा तो ये खुला मुझपर
के तिश्नगी का सफ़र हर नफस में जारी था.


मेरी तकान पे कतरा के तुम निकल जाते
यही तो दोस्तों! अंदाज़े-शहसवारी था.


मैं ढाल बन गया खुद अपनी शीशगी के लिए
हरेक सम्त से ऐलाने-संगबारी था.


सजे हुए थे बहुत अजमतों के आईने
मेरी ज़बीं पे मगर अक्से-खाकसारी था,


बुझे हुए थे निगाहों के बाम-ओ-दर गौतम
हमारे दिल में मगर रंगे-ताबदारी था.


----देवेन्द्र गौतम

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

वही नज़र, वही अंदाज़े-गुफ्तगू .......

वही नज़र, वही अंदाज़े-गुफ्तगू लाओ.
हमारे सामने तुम खुद को हू-ब-हू लाओ.


शज़र-शज़र से जो बेरब्तगी समेत सके
उसी ख़ुलूस के मौसम को चार-सू लाओ.


हरेक हर्फ़ पे रौशन हो ताजगी की रमक
कलम की नोक पे जज़्बात का लहू लाओ.


बहुत दिनों की उदासी का जायका बदले
अब अपने घर में मसर्रत के रंगों-बू लाओ.


किसी लिबास में बेपर्दगी नहीं छुपती
हमारे जिस्म पे मलबूसे-आबरू लाओ.


हरेक वक़्त रफीकों की बात क्या मानी
कभी तो लब पे तुम अफसान-ए-अदू लाओ.


बिखर चुका है बहुत शोरो-गुल फजाओं में
इसे समेट के अब इन्तशारे-हू लाओ.


हमारे सर पे अंधेरों का बोझ है गौतम
कभी हमें भी उजालों के रू-ब-रू लाओ.


----देवेन्द्र गौतम

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

जिधर देखूं तबाही का......

जिधर देखूं तबाही का समां है.
सलामत अब किसी का घर कहां है.


मेरे चारो तरफ अक्से-रवां है.
खलाओं में कोई सूरत निहां है.


रफ़ाक़त के पशे-पर्दा अदावत
अज़ब रिश्ता हमारे दरमियां है.


जरा सोचो कदम रखने के पहले
तुम्हारी राह का पत्थर कहां है.


न मुझको याद है बीते दिनों की
न मेरे लब पे कोई दास्तां  है.


मेरे सीने में अंगारे भरे हैं
मेरी आंखों में सदियों का धुआं है.


कदामत छा गयी सारी फ़ज़ा पर
मगर कुदरत का हर गोशा जवां है


----देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

हर मुसाफिर जुस्तजू की......

हर मुसाफिर जुस्तजू की खाक में खोया हुआ.
मंजिलें जागी हुई हैं, रास्ता सोया हुआ.


तोहमतों की कालिकें माथे पे रोशन हो गयीं
वरना मैं भी कल तलक था दूध का धोया हुआ.


हर तरफ थी सात रंगों की छटा निखरी हुई
बैठे-बैठे बारहा ऐसा भरम गोया हुआ.


खामुशी की रेत थोड़ा सा हटाकर देख लो
गुफ्तगू का एक दरिया है यहां सोया हुआ.


फ़स्ल ख्वाबों की उगाता भी तो आखिर किस तरह
तीरगी का खौफ जिसके दिल में था बोया हुआ.


जीते जी मैं किस तरह रस्ते में फेंक आता उन्हें
बोझ जिन रिश्तों का इन कन्धों पे था ढोया हुआ.


शाम को जब दोस्तों में वक़्त की बातें चलीं
अपना गौतम लग रहा था किस कदर खोया हुआ.


----देवेन्द्र गौतम

अँधेरी रात के दामन में......

अंधेरी  रात के दामन में ख्वाबों के उजाले रख.
तमन्नाओं के सूरज को अभी दिल में संभाले रख.


बहुत मुश्किल है  इस माहौल में कुछ बात कह पाना
जो बातें लब पे आतीं हैं उन्हें दिल में संभाले रख.


सफ़र पे चल पड़ा हूं मैं तो अब रुकना नहीं मुमकिन
मेरे पावों  में ए मालिक! तू अब जितने भी छाले रख


तेरी रफ़्तार तेरी ख्वाहिशों को सर्द कर देगी
किसी  तर्ह तू अपने जज़्ब-ये-दिल को उबाले रख.


बहाना कुछ तो हो सबके लबों पे छाये रहने का
मेरी वहशत के किस्सों को ज़माने में उछाले रख.


गिले-शिकवे भी कर लेंगे अगर मौका मिला गौतम
अभी फुर्सत नहीं मुझको अभी ये बात टाले रख.


----देवेन्द्र गौतम .

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

हर तरफ रंजो-ग़म का......

हर तरफ रंजो-ग़म का धुआं रह गया.
ख्वाहिशों का अज़ब इम्तिहां  रह गया.


इक दहकती हुयी सी ज़मीं रह गयी
इक पिघलता हुआ आस्मां रह गया.


रंजिशों के कुहासे में लिपटा हुआ
उसकी यादों का कोहे-गरां रह गया.


नींद उड़ती गयी, ख्वाब बुझते गए
खुश्क आँखों का सूना मकां रह गया.


जिसकी खातिर भटकता फिरा चार-सू
वो मुझी से बहुत बदगुमां रह गया.


फिर उसी सम्त खंज़र हवा के चले
जिस तरफ जिन्दगी का निशां रह गया.


तीरगी का समंदर तआकुब  में है
रौशनी का सफीना कहाँ रह गया.


दिल से गौतम हरेक शक्ल ओझल हुयी
उसकी यादों का फिर भी निशां रह गया.


----देवेन्द्र गौतम

शनिवार, 29 जनवरी 2011

सब दरख्तों पे वही अक्से-खिज़ानी.......

सब दरख्तों पे वही अक्से-खिज़ानी कब तलक.
वक़्त के सूरज की ये शोला फ़िशानी कब तलक.


रास्तों की आँख से निकलेगा पानी कब तलक.
मंजिलों के नक्श होंगे इम्तहानी कब तलक.


दिल में शोला कब तलक, आँखों में पानी कब तलक.
रास्तों की खाक छाने जिंदगानी कब तलक.


हर बरस गुज़रा है हमपे एक आफत की तरह
ऐ खुदा! हमपे तुम्हारी मेहरबानी कब तलक.


ख्वाहिशों की धूप में तपता रहा दिल का चमन
यूँ मुरादों की उगेगी रातरानी कब तलक.


कब तलक कह पाऊंगा मैं आपबीती दोस्तों!
आप भी सुन पाएंगे मेरी कहानी कब तलक.


नींद की बस्ती में गौतम और भी तो लोग हैं
तू ही तन्हा ख्वाब देखे आसमानी कब तलक


-----देवेन्द्र गौतम .

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

अहसास के सीने में जो......

अहसास के सीने में जो गिर्दाबनुमा था.
ज़ज्बों की नदी में वही सैलाबनुमा था.


जलवा तेरा जैसे परे-सुर्खाबनुमा था.
आया था सरे-चश्म मगर ख्वाबनुमा था.


सहरा में घनी प्यास लिए लोग खड़े थे
कुछ दूर झलकता हुआ वो आबनुमा था.


मिलता था वही रात को ख्वाबों की गुफा में
जो दिन की घनी धूप में नायाबनुमा था.


हल्का सा तवारुफ़ था तो थोड़ी सी मुलाक़ात
वो अजनवी जैसा था पर अह्बाबनुमा था.


आवाज़ थी उलझी हुई गौतम के गले में
सीने में अज़ब खौफ का जह्राबनुमा था.


----देवेन्द्र गौतम 

बुधवार, 26 जनवरी 2011

इस कदर बज्मे-सुखन में तो......

इस कदर बज्मे-सुखन में तो ज़बांपोशी न थी.
और सब था बस मेरी फितरत में ख़ामोशी न थी.


रौशनी से तर-ब-तर लम्हों की सरगोशी न थी.
जिंदगी सरगोशी-ए-बज्मे-फरामोशी न थी.


बेबसी के खार थे चारो तरफ बिखरे हुए
जिंदगी की राह में खुशियों की गुलपोशी न थी.


गर्दिशे-हालत की काली फ़ज़ा रौशन रही
वक़्त की बाँहों में यूँ तारीक़ ख़ामोशी न थी.


रोजो-शब की उलझनों ने कर दिया पागल मुझे
बेखुदी तो थी मगर मुझमें जुनूंपोशी न थी.


गूंजते रहते थे कुछ यादों के नग्मे हर तरफ
जब तलक अहसास के आंगन में ख़ामोशी न थी.


आपके होठों पे कुछ लफ़्ज़ों के सागर थे मगर
आपके अंदाज़ में पहली सी मदहोशी न थी.


तीरगी की साख थे फैले सियह राहों में हम
नंगे पेड़ों की तो हमसे आबरू-पोशी न थी.


आज गौतम आशना चेहरों से कतराने लगा
कल तलक इसकी तो यूं अपनों से रूपोशी न थी.


---देवेंद्र गौतम 

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

रोजो-शब का अज़ाब....

रोजो-शब का अज़ाब देखेंगे.
नींद आई तो ख्वाब देखेंगे.


तीरगी के हिजाब में रहकर
रौशनी बेहिजाब देखेंगे.


सामने भी हुए तो क्या हासिल
दरमियां  हम हिजाब देखेंगे.


जिंदगी की तवील राहों में
रंजिशें बेहिसाब देखेंगे.


आइना गुफ्तगू पे उतरेगा
आप अपना जवाब देखेंगे.


हर वरक पर उगेंगे अक्स तेरे
जब भी कोई किताब देखेंगे.


मैकशी लाख हो बुरी लेकिन
आज पीकर शराब देखेंगे.


ख्वाहिशों के चमन में हम गौतम
रोज़ ताज़ा गुलाब देखेंगे


----देवेंद्र गौतम .

रविवार, 23 जनवरी 2011

यही खाना-ब -दोशी है.....

यही खाना-ब -दोशी है, इसे बेहतर समझ लेना.
जहां रुकना, जहां टिकना, उसी को घर समझ लेना.


मेरे अन्दर है कितना मौसमों का डर, समझ लेना.
मैं फूलों का मुहाफ़िज़ हूं, मुझे पत्थर समझ लेना.


कभी घर में ही बन जाता है दफ्तर, यूं भी होता है.
कभी दफ्तर को ही पड़ता है अपना घर समझ लेना.


जहां तक फ़ैल सकते हैं, तुम अपने पाओं फैलाओ
मगर फैलेगी कितना अक्ल की चादर समझ लेना


---देवेंद्र गौतम .

शनिवार, 22 जनवरी 2011

झील के पानी में आया है.....

झील के पानी में आया है उबाल.
जाने कैसा होगा दरियाओं का हाल.


एक सिक्के के कई पहलू निकाल.
बाल की यूं भी निकल आती है खाल.


इस सदी में चैन से कोई नहीं
मेरा, तेरा, इसका, उसका एक हाल.


बाढ़ तो ऐसी कभी देखी न थी
और न देखा था कभी ऐसा अकाल.


बेबसी का आइना थी खामुशी
खुश्क आखों में थे कुछ भीगे सवाल.


आप प्यादा हैं, चलें एक-एक घर
हम चलेंगे ढाई घर की एक चाल.


तुमसे मिलने की ख़ुशी जाती रही
रह गया तुमसे बिछड़ने का मलाल.


----देवेंद्र गौतम 

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

इक नयी पौध अब.....

इक नयी पौध अब उगाये तो.
कोई बरगद की जड़ हिलाए तो.


अपना चेहरा जरा दिखाए तो.
भेड़िया फिर नगर में आये तो.


बादलों की तरह बरस पड़ना
आग घर में कोई लगाये तो.


लोग सड़कों पे निकल आयेंगे
एक आवाज़ वो लगाये तो.


उनके कानों पे जूं न रेंगा पर
मेरी बातों पे तिलमिलाए तो.


फिर खुदा भी बचा न पायेगा
पाओं इक बार लडखडाये तो.


-----देवेंद्र गौतम 

जो नदी चट्टान से......

जो नदी चट्टान से निकली नहीं है.
वो समंदर से कभी मिलती नहीं है.


हम हवाओं पे कमंदें डाल देंगे
ज़ुल्म की आंधी अगर रुकती नहीं है.


रास आ जाती हैं बेतरतीबियां भी
जिंदगी जब चैन से कटती नहीं है.


बादलों की ओट में सिमटा है सूरज
रात ढलकर भी अभी ढलती नहीं है.


अपने अंदर इस कदर डूबा हूं मैं
अब किसी की भी कमी खलती नहीं है.

---देवेंद्र गौतम  

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

आस्मां से कह रही है.....

आस्मां से कह रही है उलझनों की सरज़मीं.
लाख पैगम्बर हुए दुनिया वहीँ की है वहीँ.


पेड़-पौधे कट रहे हैं, खेत भी सूखे पड़े
गोद खाली कर रही है आजकल अपनी ज़मीं.


हर किसी ने हर किसी को हर तरफ धोखा दिया
अब किसी की बात पर कैसे करे कोई यकीं.


वक़्त इक ऐसा भी था कि रात-दिन का साथ था
वक़्त इक ऐसा भी है कि तुम कहीं और हम कहीं.


अब मेरे दिल में कोई रहता नहीं तो क्या हुआ
ये ज़रूरी तो नहीं कि हर मकां में हो मकीं.


----देवेंद्र गौतम 

बुधवार, 12 जनवरी 2011

इक इमारत खुद बनायीं.....

इक इमारत खुद बनायीं और खुद ढाई गयी.
फिर वही पिछले दिनों की भूल दुहराई गयी.

जाने कितनी बार इंसानी लहू डाला गया
आजतक लेकिन न अपने बीच की खाई गयी.

फिर तरक्की के नए औकात समझाए गए
फिर हवा के पाओं में ज़ंजीर पहनाई गयी.

जैसे दरिया में उठे कोई सुनामी की लहर
जिंदगी इस दौर में कुछ इस तरह आई गयी.

बस इसी तकरार में गुज़रा रफ़ाक़त का सफ़र
महफ़िलें उनकी उठीं न अपनी तन्हाई गयी.

-----देवेंद्र गौतम 

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

हर आइने में अबके.....

हर आइने में अबके अक्से-दिगर  मिलेंगे.
ढूंढोगे आदमी को तो जानवर मिलेंगे.

बंज़र ज़मीं पे अबके सब्ज़ा दिखाई देगा
ज़रखेज़ जंगलों में सूखे शज़र मिलेंगे.

सूरज की रौशनी में खोये हुए मनाज़िर
रातों की तीरगी में फुटपाथ पर मिलेंगे.

जाओ किसी नगर में पक्के मकां तलाशो
इस गाँव में तो बाबू! मिटटी के घर मिलेंगे.

बेहतर है कुछ नकाबें चेहरे पे तुम भी रख लो
नज़रें बदल-बदलके अहले-नज़र मिलेंगे.

जो आज हंस रहे हैं गौतम की बात सुनकर
इक रोज देख लेना अश्कों से तर मिलेंगे.

----देवेंद्र गौतम 

सोमवार, 10 जनवरी 2011

अब यहां कोई करिश्मा.....

अब यहां कोई करिश्मा या कोई जादू न हो.
आदमी बस आदमी बनकर रहे साधू न हो.

हर तरफ फैला रहे कमज़र्फ लोगों का हुजूम
शह्र की आबो-हवा अब इतनी बेकाबू न हो.

हुक्म आया है कि सब सहमे हुए आयें नज़र
फूल खिलता है खिले, लेकिन कहीं खुशबू न हो.

तेज़ लहरों से उभरती है सनाशाई सी कुछ
इस समंदर में मेरा खोया हुआ टापू न हो.

जा रहा है गांव से तो जा, मगर उसकी तरह
लौटकर आये तो तू भी शह्र का बाबू न हो.

----देवेंद्र गौतम 

सोमवार, 3 जनवरी 2011

वक़्त की आंच में हर लम्हा.....

वक़्त की आंच में हर लम्हा पिघलती गलियां.
हमसे बाबिस्ता हैं तहजीब की बूढी गलियां.

चांद-तारों की चमक आंखों में भरने वाले!
देख कचरे में पड़ी खाक में मिलती गलियां.

आते-जाते रहे हर सम्त से ख्वाबों के नबी
फिर भी चौंकी न कभी नींद की मारी गलियां.

हर तरफ प्यास का सहरा है कहां जाओगे
हर तरफ तुमको मिलेंगी युंही जलती गलियां.

आ! सिखा देंगी भटकने का सलीका तुमको
मेरे अहसास की सड़कों से निकलती गलियां.

सर्द आहों की फ़ज़ा और अंधेरों का सफ़र
सो गए लोग मगर आँख झपकती गलियां.

मन के मोती में चुभी सुई बिना धागे की
याद जब आयीं तेरे साथ सवंरती गलियां.

आओ देखो न! सदा देतीं हैं किसको गौतम
दिल के अंदाज़ से रह-रहके धड़कती गलियां.


----देवेंद्र गौतम  

कैसे-कैसे ख्वाब इन आंखों में....

कैसे-कैसे ख्वाब इन आंखों में संजोते थे हम.
नींद जब गहरी न थी तो देर तक सोते थे हम.

बारहा मिलते थे लेकिन टूटकर मिलते न थे
कुछ कसक रहती थी दिल में जब जुदा होते थे हम.

भीड़ में रखते थे हम भी इक तबस्सुम जेरे-लब
लेकिन जब होते थे तन्हा आंख भिंगोते थे हम.

उन दिनों हम भी नशे में खुलते थे कहते हैं लोग
बात कुछ करते न थे जब होश में होते थे हम.

लम्हा-लम्हा मुस्कुरा के थाम लेता था हमें
वक़्त की बहती नदी में हाथ जब धोते थे हम.


----देवेंद्र गौतम 

रविवार, 2 जनवरी 2011

अपनी हरेक उडान......

अपनी हरेक उडान समेटे परों में हम.
फिर आ चुके हैं लौटके अपने घरों में हम.

सीने में यूं तो रौशनी कुछ ख्वाहिशों की है
रहते हैं फिर भी ग़म के सियह मंजरों में हम.

हमने तमाम उम्र गुजारी है बेसबब
हीरे तलाशते रहें हैं पत्थरों में हम.

हम सब जला चुके हैं वसूलों की फाइलें
अब चैन से हैं जिंदगी के दफ्तरों में हम.

थोड़ी सी दुश्मनी भी ज़रूरी है इन दिनों
बेहिस पड़े हैं दोस्ती के चक्करों में हम.

ख्वाबों का इक गुहर तो दे आंखों की सीप में
जागे हुए हैं सदियों से अंधे घरों में हम.

दुनिया ने तीरगी के हमें ज़ख्म जो दिए
उसको भी क्यों न बाँट दें दीदावारों में हम

गौतम अभी यकीन की सरहद से दूर है
कैसे करें शुमार उसे हमसरों में हम.


----देवेंद्र गौतम 

आंख पथरा गयी....

आंख पथरा गयी बिखर से गए.
हम अंधेरे में आज डर से गए.

हम हुए माईले-सफ़र जिस दिन
रास्ते सब के सब ठहर से गए.

हर तरफ धुंद है, खमोशी है,
काफिले क्या पता किधर से गए.

इक जरा सा ख़ुलूस पाया तो
घाव पिछले दिनों के भर से गए.

आंधियों की करिश्मासाज़ी से
हम परिंदे तो बाल-ओ-पर से गए.

फिर कलंदर-सिफत हुआ सबकुछ
खुदगरज लोग इस नगर से गए.

----देवेंद्र गौतम